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श्या० क० टीका यदि बि०
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sasta प्रसवेन वातन्तरमाद
मूलम् - अत्रापि वर्णयन्यये सौगताः कृतबुद्धयः ।
क्लिष्टं मनोऽस्ति पनि तद्यथात्मक्षणम् ||८||
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अत्रापि आत्मसिद्धावपि कृतबुद्धयः = चाकापेक्षा परिष्कृतधियः एके सांगता वर्णयन्ति किम् ? इत्याह-- किन विशिष्ट न तु मालाकार, यद् नित्यं मनोऽस्ति तत्र यथोक्तामलक्षणम् -- अहम्प्रत्ययाल*बनान्मध्यपदेशभा ॥८८॥ संविदित मानना ही उचित है। साथ ही यह भी दिवारणीय है कि जिस युक्ति से प्रत्यक्षज्ञान से उसके विषय में प्राय की सिद्धि होती है उसी प्रकार की युक्ति से अनुमिति आदि ज्ञानों से उसके विषय में अनामक अतिरिक पदार्थ की सिद्धि की भी भापति होगी, क्योंकि जैसे प्रत्यक्ष के विषय घट आदि में 'प्रकटो घटः इस प्रकार प्राकट्य की प्रतीति होती है वैसे दो अनुमिति आदि के विषयभूत घटादि में 'अको पदः' यह भी प्रतीति आनुभविक है ।
यदि यह कहा जाय कि यह ठीक है कि 'अनुमिति भात्रि से प्राकट्य का जन्म न होने से प्राकटण हेतु ले अनुमिति आदि का अनुमान नहीं हो सकता, पर अनुमिति से प्रवृत्ति आदि का जन्म तो होता ही है. फिर उसी से अनुमिति मादि का अनुमान हो जायगा अतः ज्ञान के परोक्षत्य मन में भी अनुमिति आदि की असिद्धि नहीं हो सकती, धूम आलोक आदि विभिन्न लिगो से ध िका अनुमान होने से लिग के अनुगम को दोष नहीं माना जाता श्रतः कर्त्री प्राकटय हेतु में और कहीं प्रवृत्ति हेतु से ज्ञान के अनुमान में कोई बाधा नहीं हो सकती है-"
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तो यह भी टीक नहीं है, क्योंकि प्रवृति आदि से अनुमिति के समान हान का भी प्रत्यक्ष मानने में कोई बाधक नहीं है। मन यह होता है कि-"यदि ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है तो याह्य अर्थ के समान उस में भो प्रत्यक्षकर्मता की प्रतीति क्यों नहीं होती ?" - सो इसका उत्तर यह है कि शाम विषय होने के साथ ही क्रिया भी है, अथः क्रियात्व के गनुवेध कारण उस में कर्मता की प्रतीति नहीं होती ।
"उक्त युक्तियों से आत्मा की सिद्धि न हो जाने पर आत्मवादी धायक का मुँह पनि मानवी पड़ता है तो उस मलामता का कारण हम साम्यवादी नहीं है, किन्तु अप्रामाणिक असारमयाद के प्रति उसकी दुरामपूर्ण निष्ठा ही कारण है" ॥ इस तरह भार्याक के मत का पूर्ण हुम । [ आत्मा के बारे में बौद्ध मत ]
प्रसह समृति में भय कारिका ८८ और ८९ द्वारा भीदों के आत्मविषयक मत का उपन्यास और निराकरण किया गया है। पहली कारिका में कहा गया है कि बौद्ध वाक की अपेक्षा परिष्कृतबुद्धिवाले होते हैं, मतः उसका कहना है कि उदयमान सभ्वरदेह मात्मा नहीं है किन्तु क्लेश-विविध वासनाओं से युक्त नित्य मतही 'महम्' इस ज्ञान का विषय है उसी का नाम आम्मा है, उस से भिन्न कोई शादयत आत्मा नहीं है ||८८