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शारवातासमुच्चय-स्तबक र लो० ८०-९०.. ___ अत्र निस्पत्यं वनानाम्ययत्यम्, क्षणविशरारुपरिणामप्रवाहपतितत्व वा । इति विकल्प्य दृषयति-- मूकम्--यदि निः तदात्मैव सजा मेदोऽत्र केवलम् ।
मथानिय तत चेदं न यथोक्तात्मलक्षणम् |८|| यदि स्वदभ्युपेतं मनो नियं - सहावेनाव्यय, तदाऽऽत्मैव उत्ः अत्र = अस्मिन् बादे, कवलं संज्ञाभेदः न त्वर्यभेदः । अथानिस्पंद्रव्यतयाऽपि नश्वरम्, 'तदा'इति प्राक्तनमनुषष्यते, ततश्च-अनित्यन्माच्च, इदं :मना, न यथोकमत - मुक्तमामा याचमात्मनो लक्षण सिदं तन्मेत्यर्थः ॥८९||
आत्मकक्षणमेघाप्रभम् -- यः कर्ता कर्मभेदानां भोला कर्मफलस्य च ।
संसा परिनिर्माता स यात्मा नान्यरक्षणः ३९०॥
यः कर्मभेदाना = ज्ञानावरणादीनां कर्ताः कर्मफल्टस्य = सुखदुः मादेश्च भोक्ता, तथा संसा = स्वकृतकर्मानुरूपनरकादितिगामी, तथा परिनिर्वाता - कर्मक्षयकारी; हि = निधितंस प्रात्मा; नान्यलक्षणः पराभिमनकूटस्थादिरूपः ।
इसरी कारिका में शौच मत का खण्डन किया गया है जो इस प्रकार हैबौर जिल पलंशयुस नित्य मन को आत्मा करते हैं, उसकी नित्यना के दो रुप हो सकते हैं, पक नो यह कि वह एक व्यक्तिरूप में वय्यरूप में स्थिर नित्य हो, और दूसरा पार कि यह न्यचिरूप में तो नएयर हो किन्तु क्षमापूरपरिणामों के अधिच्छिन्न प्रवाह का घरक होने से नित्य हो । यमि उसकी पहली मिस्यता स्वीकार की जायगी नथ तो बह पड़ी आत्मा होगा जो आत्मयावी जैन को मान्य है, अतः उसे नौब की ओर से केवल 'मन' की ना संज्ञा दी प्राप्त होगी, स्वरूप में कोई मेव न होगा। और यदि उसकी दूसरी लिस्यता स्वीकार को जायगी सप यह उस आत्मा का स्थान में ग्रहण कर सकेगा जिसको युक्तियों और भागो मारा गारमवादी विद्वानों में प्रतिष्ठित कर रखा है ||
[प्रायमस्वरूप की पहचान ] इस फारिका १० में भास्मा का प्रामाणिक स्थरूप बताया गया है
जो कामावरण आदि विविध कर्मों को करता है तथा उन कर्मों का फलभोग करता है, परे अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि गतियों में जाता है और अपने कर्मों को ज्ञान, वर्शन, चरित्रबारा नए कर के मोक्ष प्राप्त कर सकता है-मिश्चितरूप से बड़ी मात्मा है। जो पेसा न हो, किसी माय प्रकार का है वह आत्मा नहीं हो सकता से पेवाती मौर सांख्य का कूटस्प तथा नैयायिक शेषिक का विभुया मनारमयादियों का देह,