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________________ २९० शास्त्रमा समुच्चय-शाक र लो०७ अस्तु या शातता मापन तर नानुमानसाः, साता। विक निष्ठत्वादधानस्य चात्मनिष्ठत्वात् । अथ समशयेन घटप्रत्यक्ष सम्बन्धविशेषेण घरप्राकट्य स्वसमानाधिकरणं जनयति, इति सेन तदनुमानम्। अत एव तबीयप्राकटचस्पनान्पेन माने, विषयतया तनीयज्ञानप्राकटयपत्यशे तादात्म्येन नदीपप्राकट्यस्य हेतृत्वादिति चेत् ! न, तथाऽप्यनुमिल्पादेरसियापत्तः, परोक्षज्ञाने प्राकट्यस्यापि पदार्थान्त रस्य स्वीकारापत्तेश्य ! न च प्रत्यादिना तदनुमानं किंगाननुगमस्याऽदोपत्वादिति वाभ्यं, प्रमुल्यादेवि ज्ञानस्य प्रत्यारो बाधकामावान्, पापाचन कर्मत्वानरभासस्प क्रियात्वेनानुषेधादपपत्तेरिति किमप्रस्तुवेन ! इति चार्वाकमनिरासः ।। बामसिद्धेः परं शोकारकोका ! बोकायताननम् । समालोकामहे म्लान, तत्र नो कारणं वयम् ।।८७|| प्रमाण नहीं है । 'मानसन्य फल का मानय हुप दिना घट झान का कर्म न हो सकेइस मापंक्तिका उत्तर यह है कि जैसे अतीतघट शानजन्य फल का आश्रय नबो सकने से जान का मुनयकर्म न हो कर गौण फर्म है उसी प्रकार विद्यमान घर भी हान का गौण ही कम है। ज्ञानता से ज्ञान का अनुमान अशक्य.] पदि यह मान भी लिया जाय कि घट मादि विषयों में शान से शाततामामक धर्म की उत्पत्ति प्रामाणिक है, तो भी उनसे हान का अनुमान नहीं हो सकता, क्योकि हासता विषय में रहती है और ज्ञान आमा में रखता है और नियम यह है कि लिग अपमे भाश्रय में ही साध्य का अनुमापक होता है। इसके उत्तर में यदि यह कहा आय कि -"मिस सम्बन्ध से प्राकट-ज्ञानता घट आदि विषयों में उत्पन्न होतो उस सायचो तो वह भास्मा में समयायसम्बन्ध से रखनेवाले पठादिप्रत्यक्ष का समाना. धिकरण नहीं है, किन्तु स्थविषयकमत्यनमयायिन प्रादि विशेष लम्पन्ध से भास्मनिष्ठ होने से उसका समामाधिकरण है, मतः उक्त विशेषसम्पन्ध से शातता को मारमात पान का अनुमान कराने में कोई पायक नहीं है। जिप पुरुषके शान से जो प्राकटय उत्पन्न होता वह उस पुरुष का प्राकटय कहा जाता है और एक पुरुष प्राकट्य का पाम पूसरे पुरुष को नहीं होता मतः विषयतासम्बन्ध से तत्पुषीयपाकटपहान प्रति तत्पुषीयपाकटय को तादात्म्यसम्बन्ध से कारण माना जाता है, अतः प्राप की विषय मिष्ठता के समान सम्बन्धविशेष से उसकी प्रानिष्ठता मी निर्विषाव , इसलिये प्राकटय से आत्मा में ज्ञान का भानुमान निर्वाध सम्मान हो सकता"-सो यह कपन ठीक नहीं है क्योकि माग्दा से केवल प्रत्यक्षात्मक शाम का ही मनुमान हो सकता है क्योंकि उसीसे विषय में प्राकट्य की उत्पत्ति होती है । अनुमति मादि पेशवानी से तो विषय में प्राकट्य को उपसि होती नी, अमः बान को परोक्ष मानने पर भर्मित भाषि कामों की खिसि न हो सकेगी, इसलिये पाममात्र को स्व
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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