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________________ ०२ मु भू । तद्वैचिश्पमपि बन्धहेतुत्वावैचित्र्येऽपि संक्रमकरणादिकृतं परिणत प्रवचनानां ज्ञानमेव । परेपामपि कीर्तनादिनाश्यतावच्छेदकं वैजात्वमावश्यमेव, अम्वमेधानपेयादिपरितस्य गुरुत्वात् खजात्यघटनाऽविनी माच्छन समूहाउम्चन कीर्तनाच्चो भयोरेव खयंजात्यावच्छिन्नयनः अन्यथा प्रत्येकनानाप्रसङ्गात् तत्र विचित्प्रतिप्रकादिकल्पने गौरवाच्चेति किमिहात्मक सपर गृह विचारप्रपन्चेन ! ॥९५॥ करने के लिये वियत्तासम्ध से मानसश्य के प्रति उसे ताम्पसम्बन्ध से प्र बन्धक मानना होगा। फिर इस प्रतियप्रतिपन्धकभाष की नवीन कल्पना से अष्ट का आत्मगुणत्व पक्ष गौरवशस्त होगा। इस प्रकार की बातें, जो अहद के आरमगुणाव में विरोधी है, उपाध्यायजी विरचित 'ज्ञाना' नामक ग्रन्थ में उसका अनुसन्धान प्राप्त कर लेना । अदृष्ट के भौतिकत्व के समान उसका वैश्रिव्य प्रतिमे भो आवश्यक है । यद्यपि सभी षष्टबन्ध का हेतु होने से पकशालीय है तथापि संक्रमकरण आदि निमिलों से उसमें वैविध्य का होना अनिवार्य है। यह श्रात दूसरों को सुगम भले न हो पर जिन लोगों ने प्रवचन - जैनागम में निपुणता प्राप्त की है, उन्हें तो यह यात अति सुगम है। दूसरे लोगों को भी आगमों के आधार पर न सही, पर कोर्तन आदि के माइयावश्रूप में अनुमान के आधार पर अष्ट में जातिभेद मानना होगा, अन्यथा अश्वमेघजस्य अष्ट की भाजपेय कीर्तन से एवं बाजपेय नस्य अदृष्ट की अश्वमेधकीर्तन सेनापति के निवारणार्थ अश्वमेधादिजन्य अनार के प्रति स्वायजम्यतासम्बन से अश्मेघरवारिविशिष्ट अष्टत्वेन कारण मानने से कार्यकारणभाव में गौरव अनिवार्य है, और यह गौरव तब और यह जाता है जब इस में कोई विनिगमना दो पक्षों में किलो एक ही पक्ष की समर्थक युक्ति का अभाव हो जाता है कि अश्वमेध आदि से अन्य अष्टमाश के प्रति अश्यमेत्यादिविशिष्ट र कारण है या भवमेध आदि से होनेवाले विजातीयसुत्र आदि का जनक मष्ट कारण है। आशय यहाँ यह है कि इस दोनों प्रकार के कार्यकारणभार्थी से एक कर्म के कीर्तन से अन्यकर्मम्य अस्य की नाशापति का परिवार होता है, अतः इन दोनों में किसी एक ही पक्ष की समर्थक कोई युक्ति न होने से इस दोनों ही कार्यकारणभावों को मानने पर अतिशय गौरव भनि वार्य है । अमेध और वाजपेय मयं हरिस्मरण और स्मरण के लकीर्तन से उभयकर्म जम्प एकजातीय अहष्ट का एक नाम होकर उभयकर्मजस्य विजातीय हो भरष्टों के दो नाश होते हैं, अतः दो कर्मों का कीर्तन होने पर किसी कर्म का फल नहीं होता। यदि यह विचार करें कि दो कर्मों के सड़कीर्तन से एकजातीय अदृष्ट का एक नाश मानने है। फलतः अभ्यमेधाजपेय के सकीर्तन को नामपता छेदक जाति और बाजपेय-ज्योतिष्टोम के कीर्तनाछेक जाति का बाजपेयीर्तन अष्ट में सकर्य मनिषा है, मतः कीर्तनाश्यत । वच्छेदकरूप में अण्ड में जाति की कल्पना मलम्भव है तो यह विचार उचित नहीं होगा क्योंकि यदि दो कप के संकीर्तन से एकजातीय महष्ट का ही नाश नागर जायगा तब सहकोर्तन स्थल में पक एक कर्म मात्र में
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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