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स्था का पोका ५० दि
तत्र पौदगलफत्वे इदमनुमानम् अहट पोद्गलिफम् आत्मानुग्रहोपयातनिमितत्वात् शारीरवत् । म चाऽनयोजकत्वं, कार्यकार्थप्रगासल्या नस्य मुखादिदेताये त्वन्नीत्याऽसमयायिकारणत्यामानात्' इति यति । वस्तुतो धर्माधर्मयोनिसप्रतिबन्धकस्यादिकल्पनाऽपेक्षगानास्मधर्भत्त्रमेव कल्पनी यम्, इत्यादिकं 'नाण' अनुसन्धे. का कीर्तन हो जाने पर भी उग के फार की आपत्ति होकीमा हुभा दुसरा महष्ट जैसे हरिम्मरण का मापार है उसी प्रकार बर गकाम्मरण का भी व्यापार है क्योंकि यार और मङ्गा दोनों की सदस्य से उत्पन्न है। इस प्रकार 'भत्र में जातिभेद नहीं होता यायिकों का यह मत पफ मानन्नाट के मा प्रतिछिन है।
प्रस्तुत कारिका के उसरार्थ में स गतसाम्राज्य को यह कहकर वस्न किया गया है कि पारगत भगवान के आगमों का परिशीलन करनेवाले भाचार्यों ने यह सिद्धान्त पतिष्ठिन कर रखा है कि अट जातिभेवशीन कोइ धामसमवेत धर्म नहीं है, किन्नु उसमे भिन्न पौनिक द्रव्य है तथा मालवधिन्य के निर्वाह के लिए मपेक्षित मनेक विचित्रतामों से सम्मा हैं।
बिष्ट पोलिमात्य का मनमान कर्म-गट * भौतिकस्य अनुमान प्रमाण में सिद्ध है। अनुमान इस प्रकार हैअरर पौलिक (भौमिक है, क्योंकि वह आरमा के अनुप्रय गाय या नृद्धि और सपथात- मात्रय या वाम का कारण, जसे शी । 'उक्त हेतु मोFrar का प्रयोजक नहीं है' यशक्षा करना उचित नही है, कि यदि उसे मोनिकायका प्रयोजक न मान कर बाट' को प्रारमा का गुण माना प्रायमा, मो आन्म होने पर यह कार्य कार्यप्रस्यामसि-नुन मादि कार्य के साथ थारमारूप एक अर्थ में प्रत्यासम्म होने से समपायसम्बाध से सुम्य आदि कार्यों का कारण होगा, भौर नय बस मिति में उसे नयायिकों की असमाधायिकारण की परिभाग के अनुसार सुग्न आणि कार्यों का असमायिकारण मानना होगा को न्याय की मान्यता के विरुद्ध है। अभिप्राय यह है कि न्याय मतानुसार 'जो जिस कार्य का कार्य का प्रत्यासचि-कार्य के साथ एक वर्ष में प्रयाससि अर्थात समवाय अध। कारणेमार्थप्रयासत्ति-कार्य के कारण ही साध पक अर्ध में प्रत्यासि मर्यासू स्वसमवापिसमवायसम्परन से कारण दोसा है वह उस कार्य का मसमवाधिकारण होता है. मेले घट के साथ काल में प्रत्यासन्न कपालयमयोग पद का समघायसम्माध से स्व प्रवरूप के समयायिकारण घर के साथ पालामक छ अर्थ में प्रत्यासम्म कपालरूप घरका का स्त्रसमयायिसमयायसम्बन्ध से असमवाधिकारण है। किन्न मरट मुख मादि का समयाय सम्बन्ध से कारण होने पर भी ग्यायमतानुसार उसका असमाथिकारण नहीं है, किन्तु बरष्ट को प्रात्मगुण मानने पर न्याय की यह मान्यता सकंहीन हो जाती है ।
सब बात तो यह है कि धर्म अधर्मरूप अट को आत्मा का गुण मामने पर उस के मामलप्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि मन स्वसंयुक्त समयाय सम्बन्ध से योग्य मारमा गुणों के प्रत्यक्ष का जनक होता है, अत: अदृष्ट को मानसप्रत्यक्ष के अयोग्य सिख