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शास्त्रमा समुहलय दोषाणामवश्यम्भावात् । तदुक्तम्-"लोभमूलानि पापानि" इति, तथा निशेषाणां गुणानामुपशमादीनां घातिनी, सतां विनाशात् . असतां चोत्पत्तिप्रतिबन्धात् । आत्मीयअहमोक्षेण बायसङ्गत्यागेन, तृष्णाऽपि लोभवासनाऽपि. विनिवर्तते विपासहरूपोडोधकाभावादनुत्थानोपहता सती प्रतिपक्षपरिणामाभ्यासेन क्षीयत इति यावत् ॥ .|| अतिदेशमाह 'एवमिति
एवं गुणगणोपेतो विशुद्धात्मा स्थिराशयः ।
तत्त्वविद्भिः समाख्यातः, सम्यगू धर्मस्य साधकः ॥१०॥ एवंप्रकारैर्गुणगणैरुपेतः = सहितः, विशुद्धात्माऽत्यन्तापायहेतुकुग्रहमलरहितः, स्थिरचित्तो नास्तिक्यानुपदत्तात्ताभ्यवसाया, तत्त्वादिः, सम्बर - आगमोक्तविधिना, धर्मस्य साधको-धर्महेतु निर्वाहाधिकारी, समास्यातः, एवं विधस्याऽऽदित एव मार्गानुसारिप्रवृत्युपलम्भात् , तदर्थमेवादिकर्मविध्युपदेशाच्च ।
सुष्पा यह अहिसा, अनुत आदि सम्पूर्ण दोषों की माता के समान है, क्योंकि उस के रहने पर समस्त दोषों की उत्पत्ति अनिवार्य है, जैसे कहा गया है कि-"लोभ सभी पापों का मूल है।" लोभ-सुथा यह उपशम आदि सभी गुणों का विघास करती है, क्योंकि उससे विद्यमान गुणों का नाश और भावी गुणों की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध होता है। पावसा का परित्याग करने से इस सृष्णा की- लोभ घासना की निवृत्ति होती है। विषयसादी सुष्णा का उगोधक है, उसका अभाव होने पर तृष्णा का उत्थान नहीं हो पाता और वह 'प्रतिपक्ष परिणाम, यानी तृष्णा का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधो चित्तपरिणति-निरीहता परिणति के अभ्यास से शीण होती है। इस प्रकार बाह्यसन का परित्याग, तृष्णा की निवृत्ति के द्वारा, धमहेतुओं के सम्मान में सहायक होता है ॥९॥
इस प्रकार साधु सेवा, सर्वभूतमैत्री, बाह्यसङ्गत्याग आदि जिन गुणों की चर्चा पूर्वकारिकाओं में की गयी है. । दसवीं कारिका में उन गुणों का धर्महेतुओं की साधना में अतिवेश किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
जो मनुष्य इस प्रकार साघुसेवा आदि जैसे गुणगणों से युक्त होता है, उसकी मात्मा निर्मल हो जाती है, अर्थात् अतिशय अनर्थ के हेतुभूत कुत्सिनमान्यतात्मक मल से नितान्त मुक्त हो जाती है, उसके वित्त में स्थिरता आ जाती है। उसके धर्मानुकूल निश्चयों का नास्तिक्य की भावना से अभिभव नहीं हो पाता । तत्ववेत्तापुरुषों के कथनानुसार ऐमा मनुष्य ही आगमोक्तविधि से धर्म की साधना कर सकता है। वही धर्म के हिसा आदि हेतुओं का निर्वाह करने के लिये अधिकृत होता है, क्योंकि ऐसे मनुष्य में भारम्भ से ही मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली प्रवृत्ति देखी आती है और उस प्रवृत्ति के लिये ही आगमों में आदिधार्मिक के कर्तव्यों के अनुष्ठान का उपदेश भी है।
१. दृष्टव्य-पातञ्जलसूत्र-वितर्क वाचने प्रतिपक्षभावनम् ॥२-३३॥