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स्था० क० टीका व हि. वि०
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तदुक्तं- 'ललित विस्तरायां' ग्रन्थकृतैव
"तत्सिद्धयर्थं तु यतितव्यमादिकर्मणि, परिहर्त्तव्योऽकल्याणमित्रयोगः, सेवितव्यानि कल्याणमित्राणि न लङ्घनीयोचितस्थितिः उपेक्षितव्यो मार्गः गुरू संहतिः, भवितव्यमेतत्तन्त्रेण, प्रवर्तितव्यं दानादौ कर्तव्योदारपूजा भगवताम्, निरुपणीयः साधुविशेषः, श्रोतव्यं विधिना धर्मशास्त्रम्, भारतीयं महायमेन, प्रवर्त्तितव्यं विधानतः, अवलम्वनीयं धैर्यम्, पर्यालोचनीयाऽऽयतिः, अवलोकनीयो मृत्युः भवितव्यं परलोकप्रधानेन सेवितव्यो गुरुजनः कर्तव्यं योगदर्शनम्, स्थापनीयं तद्रूपादि च चेतसि, निरूपयितव्या धारणा, परिहर्त्तव्यो विक्षेपमार्गः यतितव्यं योगसिद्धौ, कारयितच्या भगवत्प्रतिमा, लेखनीयं भुवनेश्वरवचनम् कर्तव्यों मङ्गलजापः प्रतिषतव्यं चतुःशरणम् गर्हितव्यानि दुष्कृतानि, अनुमोदनीयं कुशलम् पूजनीया मन्त्रदेवता, श्रोतव्यानि सच्चेष्टितानि भावनीयमदार्यम्, वर्तितव्यमुत्तमज्ञातेन" इति ।
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कहने का आशय है कि जिस मनुष्य को साधुजनों की सेवा का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता उसे संसारसागर को पार करने के उपायों का उपदेश नहीं मिल पाता । धर्मलाभ देने वाले मुनिजनों का दर्शन न हो सकने से उसके क्लिष्ट कर्म उस पर घेरा डाले रहते हैं । परमात्मा, गुरु, तीर्थ, मन्दिर, धर्मग्रन्थ आदि के प्रति उसके मन में श्रद्धा का उदय नहीं हो पाता। इसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय में अन्य प्राणियों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम का उदय नहीं होता, वह द्वेष की आग से निरन्तर दग्ध होता रहता है, उसके मन में अन्य प्राणियों के प्रति आत्मसास्य की भावना नहीं उत्पन्न हो पाती । वद युद्धोपयोगरूप धर्म का अधिकारी नहीं हो पाता। इसी प्रकार जो मनुष्य बाह्यस का त्याग नहीं करता उसकी सुष्मा (लोभवासना) सदा तरुण बनी रहती है और अपनी पूर्ति के लिये मनुष्य को हिंसा आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्त करती रहती है। फलतः साधुसेवा आदि गुणों से हीन मनुष्य अहिंसा आदि के पालन को क्षमता नहीं प्राप्त कर पाता, अतः अहिंसा आदि धर्म हेतुओं को आयन करने के लिये यह परमावश्यक है कि मनुष्य साधुसेवा सर्वजीवमैत्री और बाह्यहत्याग जैसे सद्गुणों से अपने आपको सम्पन्न करे ।
( आदि धार्मिक के अनुष्ठान )
'ललित विस्तरा' ग्रन्थ में इसी ग्रन्थकार श्रीहरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं यह बात कही है कि- "मोक्षमार्ग की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति हो, इस लक्ष्य की सिद्धि के लिये उसे आविधार्मिक के कर्मों के अनुष्ठान के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये। जिन मित्रों का साथ आत्मकल्याण में बाधक हो उन मित्रों का साथ छोड देना चाहिये। जो मित्र आत्मकल्याण में सहायक हो उनका सम्पर्क करना चाहिये | उचित स्थिति आशीवि कादि व्यवहार में ओयिका अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । लोक का आदर करना चाहिये । गुरुजनों का सम्मान करना चाहिये। गुरुजनों की अधीनता स्वीकार करनी