________________
शास्त्रातसमुच्चय
'नानाsधिकारायां प्रकृतावेवम्भूताः' इति कापिलाः । 'नाऽनवाप्तभवविपाके' इति च सौगता: । 'अपुनर्वन्ध कस्तत्वेवंभूतः" इत्याहताः । न चापुनर्वन्धकस्याधिकारिविशेषणस्याऽनिश्वये प्रवृत्त्यनुपपत्तिरिति शङ्कनीयम् अशाठ्यपूर्वकैतत्प्रयत्नेनैव तनिश्च यात् । तदुक्तम्- 'भग्नोऽप्येतद्यत्नलिङ्गोऽपुनर्वन्त्रकः' इति तं प्रत्युपदेशसाफल्यमिति । आदित एतत्प्रयत्न एवास्य कथं इति व अविरुद्धकुलाचारादि - परिपालनाद्यर्थितया इति गृहाण । अत एव 'सम्यग्दर्शनादिजन्यविवेकाभावादना भोगतोऽपि "सदन्ध० " न्यादेन मार्गऽऽगमनमेवास्य' इति वदन्ति । विभावनीयं चेदं "सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शन" न्यायेनेति दिक् ॥ १०॥
चाहिये | दान आदि सत्कर्मों में प्रवृत होना चाहिये । भगवान् परमात्मा की उदार पूजा करनी चाहिये | सच्चे चारित्र पात्र साधु की जाँच कर उनका परिचय प्राप्त करना arfs | विधिपूर्वक धर्मशास्त्र का श्रवण करना चाहिये । यडे यत्न से उससे आत्मा को भाषित करना चाहिये। यहाँ भावना मात्र चिन्तनरूप नहीं है किन्तु मृगमद से वस्त्र की तरह आत्मा को शास्त्रबोध से भावित त्रासित करने रूप है। शास्त्र - विधान के अनुसार प्रवृत्तिशील होना चाहिये । आपत्ति में व्याकुल न हो धैर्य धारण करना af | भविष्य का विचार करना चाहिये । मृत्यु का ध्यान रखना चाहिये। मुख्यरूप से परलोक पर दृष्टि रखनी चाहिये। गुरुजनों की सेवा करनी चाहिये । जप ध्यान करने योग्य योगपट्ट का वारंवार दर्शन करना चाहिये । दर्शन द्वारा उसके रूप आकृति मंत्राक्षर आदि को चित्त में स्थापित स्थिर कर देना चाहिए । चित्त में इनकी ठीक धारणा हुई या नहीं इसका निरिक्षण करना चाहिए। धारणा में विशेष करे ऐसे वामात्र का (या जिस मार्ग पर चलने से धर्म में विशेष हो उसका त्याग कर देना चाहिये । ( धारणा अखंड सिद्ध होने पर ध्यात-धर्म) योग की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए | ( योगसाधना में परमसाधनभूत वीतराग) भगवान की प्रतिमा बनवानी चाहिए । त्रिभुवनपति के बचन लिखाने चाहिए । मङ्गलमय (परमेष्ठि- मन्त्रादि) मन्त्रों का जप करना चाहिये । (अरहंत-सिद्ध-साधु-सर्वशोक्त धर्म इन वारके शरण) चारणको प्रतिपत्ति करनी चाहिए। स्वकीय पूर्वजन्मीय व ऐहिक राम क्षेत्र मोदमूलक विचार वाणी-वर्तन रूपयों की निन्दा भर्त्सना करना चाहिए । महापुरुषों के कुशलकर्म यानी सुकूनों का अनुमोदन करना चाहिए। मन्त्रदेवता की पूजा करनी चाहिए | उत्तमचरित्रों का भवण करना चाहिए । उत्तम पुरुषों के दृष्टान्त के अनुसार वर्त्तन करना चाहिये ।' ( मुक्तिमार्ग प्राप्ति की योग्यता )
कपिलमुनि के सांख्य सिद्धान्त को मानने वाले मनोधियों का मत है कि अब तक प्रकृति का संसाराणदक प्रयत्न समाप्त नहीं होता तब तक प्रकृति के साथ अविविक्तआचार्य श्री भुवनभानुमूरि)
१ विशेष विवरण के लिये देखिये पू० पं. भानुविजय (अधुना महाराज कृत 'ललितविस्तरा' का विवेचन ।