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________________ स्या० का टीका घहिं० वि० भावापन्न पुरुष मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख नहीं हो पाते । सुगन्धुद्ध के उपदेशों का अनुसरण करने वाले विद्वानों का कहना है कि जब तक संसारावर्जक कों का परि पाक नहीं हो जाता तय तक मनुष्य मोक्षमार्ग को दिशा में पदन्यास नहीं कर पाता। भगवान जिनेश्वर के श्रेष्ठ शासन को शिरोधार्य करने वाले महनीय मुनिजनों की मान्यता है कि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति अब फिर से न बांधने वाले अर्थात् अघुनबन्धक मनुष्य हो मोक्षमार्ग का पथिक होने के लिए प्रयत्नशील होता है। (अपुनर्बन्धक दशा-निश्चय के उपाय) जैनों की इस मान्यता पर यह शङ्का हो सकती है कि यदि ऐसी उत्कृष्टकर्मस्थिति की अधिक दशा वाला मनुष्य ही मोक्षमार्ग पर चलने के लिए अधिकृत माना जाएगा तो वैसी उस्कृष्ट कर्मस्थिति को बन्धक-प्रबन्धक दशा तो अतीन्द्रिय होने के कारण इस का निश्चय न हो सकने से मोक्षमार्ग का पथिक होने में मनुष्य को प्रवृति न हो सकेगो;-पर यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि शठता का परित्याग कर शास्त्रयर्णित पेसी दशा के योग्य उक्त कर्मों में प्रयत्न देखने से ही अपुनवैन्धक दशा का निश्चय हो मायगा, जैसे कद्दा मया है कि 'जिसका सम्यग्दर्शन गुण भग्न हो गया है पेसी व्यक्ति भी अपुनर्यन्धक है अगर यह उन मोक्षमार्गनुसारो कर्मों में प्रयन्नवान है।' अपुन ग्धकता ऐसे प्रयत्नरूप लिङ्ग से अवगत की जा सकती है। अपुनबन्धक मनुष्य के लिए ही ललितविस्तर के उपदेशों की सार्थकता है। __ अपनी योग्यता समझे बिना मनुष्य उक्त कर्मों के लिप प्रयत्नशील ही कैसे होगा? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि मनुष्य प्रारम्भ में आने को मोक्षमार्ग का अधिकारी समझकर उक्तफर्मों में प्रवृत्त नहीं होता किन्तु अपने कुलाचार आदि का परिपालन करने की भावना से प्रवृत्त होता है। वे कुलाबार अगर मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख करने वाले उक्त कर्मों के विरोधो नहीं होते तो उनके परिपालन में लगा हुश्रा मनुष्य उक्त कर्मों में भी निष्ठावान और प्रयत्नशील हो जाता है और फिर उन प्रयत्न से वह अपनो अपुनर्बन्धकता का निश्चय कर अपने को मोक्षमार्ग का अधिकारी समझने लगता है और अन्ततः मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है। इसी लिये विद्वज्जनों का कहना है कि जिस मनुष्य को सम्यग पर्शन आदि के द्वारा आवश्यक विवेक प्राप्त नहीं है, मोक्षमार्ग की जानकारी और मोक्षमार्ग में अभि. रुचि होने पर भी वह कुशल अन्धे के समान अभीष्ट मार्ग को ग्रहण कर लेता है।' यह बात 'सुप्तमण्डित - प्रबोधन 'न्याय से शात की जाती है। जैसे सोते हुये मनुष्य को मण्डनों से अलंकृत करने पर उस समय उसे उस यात की जानकारी नहीं हो पातो, पर सो कर उठने के बाद वह अपने को मण्डनों से अलंकृत देखता है। उसी प्रकार कुलासार के परिपालन में लगा मनुष्य अपने को मोक्षानुक्ल कर्मों में लगा नहीं समझता, पर उन कर्मों से अविरुद्ध कुलाबार के परिपालन में लगे रहने पर जब अनजान में ही मोक्षानुकूल कमों के प्रति श्रद्धावान हो तदर्थ प्रयत्नशील होने लगता है तब उसे अपनी अपुनर्बन्धकता और मोक्षाभिरुचि का परिज्ञान हो जाता है, और वास्तव में मोक्षमार्ग का यात्री बन जाता है ॥१०॥
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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