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शास्त्रवार्चा समुच्चय
ननु सुखार्थतानियता प्रेक्षावत्प्रवृत्ति में एवेति कुतो नियम्यते, सक्-चन्दनानाभाषणादीनामपि मुखोपायत्वात् तत्रापि प्रवृत्तेन्यायप्राप्तत्वाद् ? अत आह 'उपादे - यश्चेति
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मूलम् - उपादेयश्च संसारे
दुः
विशुद्ध मुक्तये, सर्वं यतोऽन्यद दुःखकरणम् ॥ ११ ॥
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उपादेयश्च ग्राद्यश्च बुधैर्ज्ञाततच्चैः सदा दुःखद भोगादिकालव्यवच्छेदेन, मुक्तये= मोक्षार्थ, विशुद्ध = निरतिचारः, धर्म एव यतोऽन्यद्-- धर्मभिन्नं सर्वं सक्चन्दनाङ्गनालिङ्गनादिकं दुःखसाधनं नरकाद्यनुवन्धि । इत्थं च न तत्र प्रवृत्तिर्व्यायप्राप्तेत्यवधारणौचित्यम् । न खल्विष्टसाधनताज्ञानमात्रं प्रवृत्तिहेतुः मधुविषसम्पृक्तान्न भोजनेऽपि प्रवृत्तिप्रसङ्गात् किन्तु वलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताज्ञानम् । न च तथात्वं शृङ्गारादिविषयाणामिति ।
प्रश्न हो सकता है कि 'यह ठीक है कि प्रेक्षावान् पुरुषोंकी प्रवृति सुख के लिये होती है, पर यह प्रवृत्ति धर्म में ही होनी चाहिये इस प्रकार का नियन्त्रण उचित नहीं है, क्यों कि माला, चन्दन, व नवसुन्दरी के साथ सम्भाषण आदि अन्य भी सुख के साधन विद्यमान हैं, अतः उनमें भी सुखार्थी की वृप्ति न्यायप्राप्त है । इसी प्रश्न का इस मूल कारिका में उसर दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-
तत्र पुरुषों को दुःख भोग पवं प्रमाद में काल भवाना छोड़कर सभी काल में मुक्तिलाभ के लिये विशुद्ध धर्म का ही सेवन करना चाहिये, क्योंकि धर्म से भिन्न माला, चन्दन, सुन्दरी का आलिङ्गन आदि जो कुछ सांसारिक विषय है वह सब नरक आदि दुःखों का कारण है, अतः दुःखकारणों में सुखार्थी की प्रवृत्ति व्यायप्राप्त न होने से धर्म में सुखार्थी की प्रवृत्ति का नियमन उचित है । यदि यह शङ्का को जाय कि- "संसार के विषय दुःख के कारण भले हों, किन्तु जब वे सुख के भी कारण हैं तब उनमें सुखार्थी की प्रवृत्ति तो न्यायप्राप्त है ही" पर यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि प्रवृत्ति के प्रति केवल इष्टसाधनता का ही अर्थात् "यह मेरे इष्टका साधन है" इतना ही ज्ञान कारण नहीं है अपि तु बलवान् अतिए की असाधनता का भी अर्थात् 'यह मेरे लिये बलवान अनिष्ट का साधन नहीं है' ऐसा भी ज्ञान कारण है, इसी लिये मधु और विष से मिले अन्न के भोजन में क्षुधा की निवृत्तिरूप दृष्ट की साधनता का शान होने पर भी मृत्युरूप बलवान अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान न होने से उस अन्न के भोजन में क्षुधा से पीडित मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती, तो जिस प्रकार मधु पर्व for से मिले अन्न के भोजन से क्षुधा की निवृत्ति सम्भव होने पर भी बलवान अनिष्टरूप मृत्यु के भय से उस भोजन में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होतो है उसी प्रकार संसार के शृङ्गार आदि विषयों से सुख की प्राप्ति सम्भव होने पर भो उनके सेवन से होने वाले नरकादि महान दुःखों के भय से उन में सुखार्थी की प्रवृत्ति नहीं हो सकती !