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स्था० ० टीका हि. वि०
'नन्वेवमविरतसम्परशा कथं निषिद्धकर्मणि प्रवृत्ति ? रागान्धतया तजन्यदुःखे बलवत्त्वाऽप्रतिसन्धानादिति चेत् ! न, तत्र बलवत्त्वस्य निषेधविधिनैव बोधात् । न्यूनदुःखजनकत्वशानस्याप्यलसप्रवृत्तिप्रतिपन्थित्ववद् बलबदुःखानुबन्धित्वज्ञानस्यापि रागान्धप्रवृत्तावप्रतिपन्धित्वाद् न दोषः, इत्यपि न सम्यग् , दुःखमात्रभीरोरलसस्य प्रवृत्तिफलेच्छाया एवानुदयादप्रवृत्युपपत्तेः । अत्र च रागान्धस्य द्वेषानुदयेऽपि विसामनीवशादेव पवृत्त्यनुपपः ।
(अविरतसम्यग्दृष्टि-निषिद्धकर्म-प्रवृत्तिकारणताविचार-पूर्वपक्ष) अष्टसाधनता के शाममात्र को प्रवृत्ति का कारण न मानकर बलवान अनिष्ट की मसाधनता के शान को भी प्रवृति का कारण मानने पर यह प्रभ होता है कि-निषिअकर्म पलवान अनिष्ट के साधक होते हैं; अतः उनमें बलवान अनिष्ट की मसाधनता का का ज्ञान महो सकने से सभ्यम्बग्निपुरुषों की उनमें प्रवृत्ति न हो सकेगी, जब कि हिंसा आदि की अधिरति से ले कर अप्रमत्त अवस्था न हो तब तक सम्यगृहष्टिपुरुषों की भी निषिद्ध-कर्मों में प्रवृत्ति का होना निर्विवाद दृष्ट है। यदि यह कहा जाय कि-'सम्यगृहष्टि पुरुष भी अविरति से मुक्ति न पाने तक राग से प्रस्त होते है, अतः रागान्धतावश उन्हें निषिद्धकर्मों से होने वाले दुःस्त्र में बलवस्य का शान नहीं हो पाता, इसलिये निषिद्धकर्मों में बलवान अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान लम्भधित होने से उन कर्मों में सम्यग्दृष्टि पुरुषों की प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती'- तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के कारण शास्त्रश्रद्धावश निषिद्धकों से होने वाले दुःख में निषेध बोधक शास्त्र से बलवत्व का ज्ञान हो ही जाता है, वह होने में रागान्घता बाधक नहों हो सकती। यदि यह कहा जाय कि -मालसी मनुष्य की प्रवृत्ति में तो न्यूनदुःख जनकत्व का भी ज्ञान प्रतिबन्धक होता है, किन्तु रागान्ध मनुष्य की प्रवृत्ति में बवान दुःख के जनकत्वका भी ज्ञान उसकी रागान्यता के कारण प्रतिबन्धक नहीं होता, अतः सम्यग्ष्टि पुरुष को निषिद्धकर्म में बलवान दुम्स के जनकत्ष का ज्ञान होने पर भा उसमें उनकी रागाधीन प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती तो यह कथन भो ठोक नहीं है, क्योंकि आलसी मनु और रागान्ध सम्यग्दष्टि मनु ग्य दोनों की प्रवृत्तियों में एक ही बाधक है, और वह है प्रवृत्ति की कारण सामग्री का अभावः अन्तर केवल इतना ही है कि आलसी मनुष्य तुःख मात्र से उरता है और प्रत्येक प्रवृत्ति में कुछ न कुछ दुःस्त्र अवश्य होता है, अतः प्रवृत्ति से प्राप्त होने वाले
में दुखपूर्च करव का शान होने से उस फल के प्रति उसके मन में द्वष उत्पन्न हो जाने से उसे उस फल की इच्छा ही नहीं होती। इस लिये प्रवृति के फलेच्छारूप कारणका ही अभाव होने की वजह प्रवृति की कारणसामग्रो का अभाव हो जाने से न्यूनदुःखजनक कर्म में भी उसकी प्रवृति नहीं होती । किन्तु जो सम्यग्दृष्टि रागाग्ध पुरुष होता है उसे निषिद्धकर्म में प्रवृत्ति होने पर उपलब्ध होने वाले तात्कालिक पर १-यहां से ले कर 'इति चेत् । सत्यम्' (पृष्ठ ६५) यहाँ तक पूर्वपक्ष है।