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________________ शास्त्रवासिमुच्चय अथ प्रवृत्ताविष्टसाधनताज्ञानमेव हेतुः. न तु बलवनिष्टाननुबन्धित्त्वज्ञानमपि, फले उत्कटेच्छाविरहविशिष्टदुःखजनकत्वज्ञानं च प्रवृतिप्रतिबन्धकम् इति ने मधुविषसम्पृक्तानभोजने पतिः, अलसस्य च यदि फलेच्छाऽस्ति तदा दुःखद्वैपादपकष्टा समा वा न तूत्कटा, इति प्रतिबन्धकसाम्राज्याद् न तस्य प्रवृत्तिा, रागान्धानां च पारदार्यादिफले उत्कटेच्छासस्चात् तत्र प्रत्तिरिति चेत् ! न, तथापि निषेधविधिसामाद दुःखेऽत्युत्कटताविज्ञानस्य प्रवृत्तिफले उत्कटेच्छाविघातकतया प्रकृतानुपपत्तेः । फल के प्रति रागातिशय होने के कारण उस फल के प्रति द्वेष न होने से उसे उस फल की इच्छा तो होती है, पर उस फल के जनक निषिद्धकर्म में शास्त्र से बलवान दुःन के अनकत्व का ज्ञान होने के कारण उसमें उसे घलवान अनिए की असाधना का ज्ञान नहीं हो पाता, अतः जैसे फलेच्छारूप कारण के अभाव से प्रवृत्ति सामग्री का अभाव होने के कारण आलसी मनुष्य की प्रवृति नहीं होती उसी प्रकार घरवनियाजनकत्वशानरूप कारण का अभाव होने से प्रवृत्ति सामग्री का अभाव होने के कारण निषिद्धकर्म में रागान्ध पुरुष की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकी। अतः आलसी मनुष्य और गगान्ध-मनुष्य में यह मेद करना कि- 'आलसी मनुष्य की प्रवृत्ति में न्यू दु खजन करव का शान भी प्रतिबन्धक है, अतः न्यूनदुःखजनककर्म में भी उसकी प्रवृत्ति नहीं होती और रामान्ध पुरुष की प्रकृति में बलगान दुःख के जनकत्व का भी ज्ञान प्रतिबन्धक नहीं होना अतः निषिद्धकर्म में उसकी रागाधीन प्रवृत्ति हो सकती है'-वह ठीक नहीं है। ___ यदि यह कहा जाय कि-"प्रवृत्ति के प्रति केवल इए साधनता का शान ही कारण है, बलवान अनिष्ट के अजनकत्व का ज्ञान कााण नहीं है। किन्तु प्रवृनि में दुःबजनकत्व का शान प्रतिबन्धक पवं प्रवृत्तिफर क उत्कटेच्छा उत्तेजक है, अर्थात प्रवृत्ति के प्रति प्रवृत्तिफल को उत्कट इच्छा के अभाव से विशिष्ट दुःख जनकत्व का मान प्रतिबन्धक है। मधु और विष से मिले अन्न के भोजन में भोजनार्थी को मृत्युदुःख के जनकत्व का शान होता है, जिससे उसे उस भोजन से होने वाले क्षुधानिवृत्तिरूप फल की उत्कट इच्छा का अभाव रहता है, इसलिये उक्त प्रतिबन्धक वश उस भोजन में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती। आलसी मनुष्य को प्रत्येक प्रवृशिफल में दुःखपूर्वकन्व का ज्ञान होने से प्रवृत्तिफल के प्रति वेष हो जाने से प्रवृत्तिफल की इच्छा हो नहीं होना और यदि होती भी है तो प्रवृत्तिलग्न दुःख के प्रति उसके मन में जो ऐप है, प्रवृत्ति फल की इच्छा उस द्वेष से गा तो कम होती है या समान होती है, उससे उत्कट नहीं होती, अतः प्रवृत्तिफल की उत्कट इच्छा का अभाव तथा प्रवृत्ति के विषयभून कर्म में दुःखजन तत्व का ज्ञान हाने से प्रतिबन्धकवश आलसी मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होतो । पर रागान्ध मनुष्य को परस्त्रीगमन आदि निषिद्धकर्मों से होने वाले तात्कालिक सुख की उत्कट इच्छा होती है, अतः निषिद्धकर्म में शास्त्र से बलवान दुःख के जनकत्व का शान होने पर भी फल की उत्कटेच्छा का अभाय न होने से प्रतिबन्धक का सन्निधान न होने ने कारण निषिद्धकर्म में सम्यगृहष्टि रामान्ध पुरुष की प्रवृत्ति हो सकती है"--
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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