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________________ शा. वा० समुच्चय - - (स्या०) अत्रोच्यते- विघ्नथ्यंस एव मङ्गलं हेतुः, न चोक्तव्यभिचारः, प्रायश्चित्तादीनामपि मालत्वात् । 'प्रारिप्सितप्रतिबन्धकदुरितनिवृत्त्यसाधारणकारणं मालम्' इति हि सल्लक्षणे परैर्गीयते, तत्र चास्माभिलाषवात् 'प्रारिप्सितप्रतिबन्धक' इति विशेषण त्यज्यत इति । तदिदमुक्तमाकरे-'स्वाध्यायादेपि मगाळत्वाविरोधात' इति । में माल के अनुष्ठान को शास्त्र में अवश्य कर्तव्य बताया गया होता, पर ऐसा कोई शास्त्र नहीं है। इसके विपरित पस्तुस्थिति यह है कि 'शास्त्र में मङ्गलानुष्ठान को अवश्य कर्तव्य म बताकर एक विशेष कामना की पूर्ति के लिप उसे कर्तव्य बताया गया है, अतः उस कामना के अभाव में माल न करने से प्रत्यवाय नहीं होता,' इस शान का होना स्वाभाविक है, तो फिर इस शाम से ही ग्रन्थारम्म में माल न करने वाले प्रन्धकार में अशिष्टत्व शङ्का का निरास हो जायगा अतः उक्त शङ्का के निरासार्थ मङ्गल करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ___ उपर्युक्त युक्तियों से मङ्गल के सभी सम्भवित फलों का निराकरण हो जाने से यह निधियाद है कि मङ्गल का कोई फल नहीं हैं, बद्द नितान्त निष्फल है। (मङ्गल सफल है-उत्तर पक्ष) इस आक्षेप के उत्तर में व्याख्याकार उपाध्याय श्री यशोविजयजी का कहना है किमङ्गल निष्फल नहीं है, क्योंकि विघ्नध्वंस को मङ्गल का फल मानने में कोई बाधा नहीं है। प्रायश्चित्त बादि से उत्पन्न होने वाले विध्नध्वंस को ले कर जो व्यभिचार बताया गया है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रायाश्चित आदि भी मङ्गल ही है, और वह इस प्र. कार कि अन्यलोगों ने मङ्गल का जो यह लक्षण बताया है कि 'प्रारम्भ करने को अभिमत कार्य को पूर्ति के प्रतिबन्धक विघ्न के बिनाश का जो कारण हो यह मङ्गल है' उसमें प्रतिबन्धकपर्यन्त भाग को 'निकाल देने पर मङ्गल का यह लघु लक्षण लब्ध होता है कि 'विघ्म के विनाश का जो कारण हो वह मङ्गल है।' इस लक्षण के अनुसार विघ्न का नाशक होने से प्रायश्चित्त आदि भी मङ्गल में अन्तर्भूत हो जाता है। 'स्थाध्याय मादि को मङ्गल मानने में कोई विरोध नहीं है' यह कह कर *आकर ग्रन्थ यानी विशेषावश्यक भाष्य में भी इस बात की पुष्टि की गयी है। १. लक्षण में प्रतिबन्धक पर्यन्त भाग को रखने पर उक्त लक्षण से प्रायश्चित आदि का संग्रह न हो सफेगा, क्योंकि प्रारिप्सित कार्य के प्रतिबन्धक धिन का नाश करने के उद्देश्य से प्रायश्चित आदि का विधान न होने के कारण वह प्रारिप्सित कार्य के प्रतिबन्धक विश्न का नाशक नहीं होता, अतः लश्चग से उक्त भाग को निकाल कर ही उसके द्वारा प्रायश्चित आदि में मङ्गलल्व का उपपादन किया जा सकता है । २ 'आकर' यह श्री जिनभद्रगणि समाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य का एक सांकेतिक नाम है । अन्य शास्त्रों में भी 'आकर' शब्दसे इसी का उल्लेख मिलता है, एवं 'पदुक्तमाकरे' कर के निर्दिष्ट उद्धरण विशेषावश्यक भाष्य में प्राप्त होता है । यहाँ उल्लिखित 'स्वाध्यायादेररि मनलत्वाविरोधात्' पाठ भी उसी भाष्य की टीका का है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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