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स्या० क० टीका व द्वि० वि०
(स्या० ) न चाचारप्राप्ताविलङ्घने प्रत्यवायस्मरणात् प्रत्यवायित्व पर्यवसन्नाशिष्टत्वशङ्कानिरास एव तत्फलं तत्परिपालनमिति वाच्यम्, तादृशशक्ङ्कायाः शिष्यावधानप्रतिपक्षत्वेऽपि समाप्त्यप्रतिपक्षत्वात्, 'कामनाविशेषनियतकर्तव्यता कस्य मङ्गलस्य तदभावेनाकरणेsपि न प्रत्यवायः' इति विशेषदर्शनेन वच्छानिवृत्तेश्च । तस्माद् मङ्गलं निष्फलमिति चेत् ?
अनुमान से अपेक्षणीय विधि शास्त्र का ज्ञान होने पर उससे महल की कर्तव्यता का अगम होकर मङ्गल के अनुष्ठान में नये ग्रन्थकार की प्रवृत्ति होती है। प्रन्थारम्भ में महल करने की यह प्रवृत्ति ही मङ्गल के सम्बन्ध में शिष्टाचार का परिपालन है । स्पष्ट है कि यह प्रवृत्ति मङ्गल से पूर्व होती है, अतः यह मङ्गल का फल नहीं हैं किन्तु मङ्गल का कारण है, क्योंकि इस प्रवृत्ति से ही मङ्गल का उदय होता है, इस लिये शिष्टाचार का परिपालन मङ्गल का फल नहीं हो सकता |
"ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल करना एक शिष्टाचार प्राप्त कार्य है और शिष्टाचारप्राप्त कार्य के परित्याग को शास्त्र में प्रत्यवाय (पाप) का जनक माना गया है, अतः जो प्रन्थकार ग्रन्थके आरम्भ में मङ्गल न करेगा उसके विषय में यह शेङ्का हो सकती है कि यह ग्रन्थकार शिष्टाचार प्राप्त कर्तव्य का उल्लखन करने के कारण अशिष्ट और प्र त्यवाय का भागी है । प्रन्थकार के सम्बन्ध में अशिष्टत्व को यह शङ्का न हो, पतदर्थ उसके लिये यह आवश्यक है कि वह ग्रन्थ के आरम्भ में भङ्गल करे, इस प्रकार अशि
शङ्का का निरास ही मङ्गल का फल है और यही महल के सम्बन्ध में शिष्टाचार का परिपालन है" यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि मङ्गल करने पर ग्रन्थकार में अ शिष्टत्य की शङ्का होने या उसके प्रत्यवायभागी होने से उसके बनाये ग्रन्थ के अध्ययन में शिष्टजनों की प्रवृति का प्रतिबन्ध हो सकता है किन्तु ग्रन्थ की समाप्ति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता तो जब मकूल न करने पर ग्रन्थ की समाप्ति में कोई बाधा नहीं हैं तब ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल करने का प्रयास व्यर्थ ही है ।
यदि यह कहा जाय कि "जैसे ग्रन्थ की समाप्ति ग्रन्थकार को काम्य होती है, उसी प्रकार उसे यह भी काम्य होता है कि उसके बनाये ग्रन्थ के अध्ययन में शिष्यजनों की प्रवृत्ति हो। पर मङ्गल न करने से ग्रन्थकार में अशिष्टत्व की शङ्का होगी और उसके ग्रन्थ को अशिष्टरचित जानकर उसके अध्ययन में शिष्यजनों की प्रवृत्ति न होगी, अतः प्रवृति
प्रतिबन्धकभूत अशिष्टत्व शङ्का के निरासार्थ मङ्गल का अनुष्ठान आवश्यक है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि मङ्गल न करने से ग्रन्थकार में अशित्य की शङ्का अथवा प्रत्यवाय का उदय नहीं हो सकता है यह शङ्कादि की बात तब हो सकती थी, जब ग्रन्थ के आरम्भ
१ यहाँ शङ्का का अर्थ है भ्रम न कि सन्देहात्मक भ्रमविशेष, क्योंकि जिस बुद्धि को शङ्का शब्द से निर्दिष्ट करना यहाँ अभी है, वह एक वस्तु में परस्पर विरोधी भाव और अभाव का अवगाहन न करने से सन्देहलम नहीं है ।