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शा० वा० समुचय
(स्पा० ) शिष्टाचार परिपालनं मङ्गलफलमित्यपि वार्त्तम्, तत्परिपालनस्यादृष्टद्वारामी प्लससिद्धिहेतुत्वे मङ्गलस्यैवादृष्टार्थत्वौचित्यात् विनमविनाश्य धर्मविशेषस्य समाप्त्यहेतुत्वे विनाशस्यैवाश्यकत्वाच ।
किं च शिष्टाचारेण विधिवोधितकर्तव्यत्वमनुमाय मङ्गले प्रवृत्तिरेव तत्परिपालनम्, न सा तत्फलं किन्तु तज्ञ्जनिकेति ।
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'शिष्टजनों का यह आधार है कि ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल किया जाय, मङ्गल न करने से इस शिष्टाचार का भङ्ग होगा, अतः इस शिष्टाचार के परिपालनार्थ मङ्गल का अनुsara आवश्यक होने से यदि कहना उचित है कि उक्त शिष्टाचरण का पालन ही मङ्गल का फल है। किन्तु यह कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि शिष्टाचार का पालन स्वयं कोई इष्य नहीं है, अतः प्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति रूप इष्ट की सिद्धि के लिये ही वह उपादेय हो सकता है, उसकी यह उपादेयता भी उसे समाप्ति का साक्षात् कारण मान कर नहीं उपपन्न की जा सकती, क्योंकि समाप्ति होने से विर पूर्व ही नष्ट हो जाने से वह शिष्टाचार पालन समाप्ति का साक्षात् कारण नहीं हो सकता । अतः अदृष्ट द्वारा दी उसे समाप्ति का कारण मानना होगा, तो फिर जब उसे भी अदृष्ट द्वारा ही समाप्ति का का रण मानना है तो उसकी अपेक्षा तो यही उचित है कि महल को ही अष्ट द्वारा समाप्ति का कारण मान लिया जाय, मङ्गल और समाप्ति के बीच शिष्टाचारपरिपालन १ को खड़ा कर उसे समाप्ति का कारण क्यों माना जाय
इसके अतिरिक्त यह भी एक विचारणीय बात है कि शिष्टाचार पालन या जससे उत्पन्न होने वाला अष्ट भी वित्तध्वंस को उत्पन्न किये बिना तो समाप्ति का कारण होगा नहीं, तो यदि बीच में विघ्नध्वंस को मानना अनिवार्य ही है तो फिर उसी को शिष्टाचारपालन या तजनित अ का फल मानना उचित है, न कि समाप्ति को उसका फल मानना उचित है ।
इस सन्दर्भ में यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि विचार करने पर शिष्टाचारपरिपालन का जो स्वरूप सामने आता है उसे देखते हुए शिष्टाचारपरिपालन को महल का फल मानना सम्भव नहीं प्रतीत होता, जैसे ग्रन्थ के आरम्भ में शिष्टजनों द्वारा मङ्गल करने की परम्परा को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि इस प्रकार का कोई विधिशास्त्र - कर्तव्यता बोधक शास्त्र अवश्य है जिससे शिष्टजनों को ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल की कर्तव्यता का बोध होता है; क्योंकि यदि ऐसा शास्त्र न होता तो शिष्टसमाज में ग्रन्थ के आरम्भ में मकूल करने की परम्परा प्रतिष्ठित न होतो, इस होगा, और तेल प्रागभाव के अभाव का अर्थ होगा तैल का होना, जो तिल से पूर्व कथमपि सम्भव नहीं है । 'तैल प्रागभाव का अभाव होने पर भी तैलात्यन्ताभाव के कारण तेल के होने की आपत्ति का परिहार हो सकता है,' यह कहना ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि तैल का कालात विरोध तैल प्रागभाव और तैलध्वंस के ही साथ होता है, तैलास्यन्ताभाव के साथ नहीं होता, क्योंकि तेल और तैलात्यन्ताभाव दोनो स्थान मेद से एक काल में रहते हैं ।