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________________ स्था० ० टोका व हिं० वि० (स्या०) 'विघ्नो मा भूत् ' इति कामनया प्रवृत्तेविनप्रागभाव एव मङ्गलफलमित्यपि न पेशलं वचनम्, प्रागभावस्यामाध्यत्वात्, स्वत आगन्तुकस्य समयविशेषस्य 'सम्बन्धरूपस्य तत्परिपालनस्यापि मालासाध्यत्वात् । . विघ्न की उत्पत्ति न हो इस कामना से ही माल के अनुष्ठान में शिष्टजनों की प्रवृत्ति होती है, अतः विष्म की अनुत्पत्ति ही माल का फल है' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विघ्न की अनुत्पत्ति का अर्थ है विघ्नका प्रागभाष, और प्रागभाव होता है अनादि, अतः उसे मकल का फल अर्थात् उत्पाद्य मानना सम्भव नहीं है। 'मङ्गल न करने पर मालरूप प्रतिबन्ध के न होने से विघ्न के कारणों से घिन को उत्पत्ति अवश्य होगो, और विघ्नकी उत्पसि होने पर विघ्न का प्रागभाव नष्ट हो जायेगा अतः विघ्न की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक खड़ा कर विघ्न प्राणभाष की रक्षा करने के लिये माल का अनुष्ठान आवश्यक होने से यह मानना उचित है कि विघ्न प्रागभाव की रक्षाही . मकल का फल है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विधन प्रागभाव की रक्षा का अर्थ है, आने वाले काल के साथ विधन प्रागभाव का सम्बन्ध , और उसके लिये आवश्यक है काल और प्रागभाष दोनों का होना, जिसमें प्रागभाव पहले से विद्यमान है और काल प्रवाहकम से स्वयं उपस्थित होता रहेगा, फलतः काल और प्रागभाय इन दोनों सम्ब. धियों के विद्यमान होने से उनका सम्बन्ध स्वयं होता रहेगा, उसके लिये माल की कोई अपेक्षा न होगी, दोनों लम्बन्धियों के होते हुए भी यदि उनका सम्बन्ध न हो पाता तो सम्बन्ध को सम्पन्न करने के हेतु माल की अपेक्षा हो सकती थी, और यह स्थिति तब होगी जब उनका सम्बन्ध घट और भूतल के संयोग के समान सम्बन्धियों से भिन्न होता पर यह बात नहीं, क्योंकि काल और प्रागभाव का सम्बन्ध सम्बन्धियों से भिन्न न हो कर तरस्वरूपात्मक ही है, अतः उसके लिये किसी अन्यकी अपेक्षा नहीं है। १ प्रागभाव का अर्थ है वह अभाव, जो अनादि कालसे होता हुआ, वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व उसके उत्पत्ति स्थान में रहता है और वस्तु को उत्पत्ति होते ही नष्ट हो जाता है, जैसे तिल में तैल का अभाव, जब तक तिल का पेषण नहीं होता तब तक तिल में तेल का अभाव रहता है, तिल का पेपण होने पर तैल की उत्पत्ति होते ही तिल में रहने वाले तैलाभाव का नाश हो जाता है। पेषण से पूर्व तिल में तेलका अभाव कब आया, यह नहीं बताया जा सकता, इस बारे में तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि तिल में तैल का गभाव अनादि है, उसका कोई प्रारम्भकाल नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि तिल तो स्वयं सादि है तो उसमें रहने वाला तेल का प्रागभाव अनादि कैसे हो सकता है ? इसका उनर यह है कि यतः तिल के साथ तेल के प्रागभात्र का जन्म नहीं होता अतः यह तिलकी उत्पत्ति से पूर्व भी रहता है, किन्तु उस समय वह केवल काल और दिशा में ही कालिक और दैशिक सम्बन्ध से विद्यमान रहता है, जब तिल उत्पन्न होता है तब उसमें बह स्वरूप सम्बन्ध से रहने लगता है, तिल के स्वरूप को ही तेल प्रागभाव का सम्बन्ध माना जाता है, काल, दिशा या अन्य किसी वस्तु के स्वरूप को उसका सम्बन्ध नहीं माना जाता, अतः तैल की उत्पत्ति से पूर्व तैल प्रागभाव के सर्वध अनादि काल से होते हुए भी किसी अन्य वस्तु में स्वरूप सम्बन्ध से उसकी स्थिति नहीं होती । तिल के साथ तिल में तेल प्रागभाव की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि सा मानने पर तिल से पूर्व तैल प्रायभाव का अभाव मानना
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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