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शा० पा समुन्यक ध्यतिरेकव्यभिचार होने के कारण बिनध्वंस के प्रति मंगल तथा प्रायश्चित मावि की कारणता का शान न होगा, और जब तक इस कारणता का बान न होगा तब तक मंगल से भी विध्नध्वंस होता है और प्रायश्चित आदि से भो विघ्नध्वंस होता है, इस बात का शान न हो सकेगा। अतः विघ्नध्यंस और मगल के बीच उक्त प्रकार से कार्यकारणभाव की कल्पना में 'अन्योन्याश्रयदोष होना स्पष्ट है।
अन्योन्याश्रय दोष तब होता है जब किन्हीं दो वस्तओं को परस्पर में ही एक सरे की अपेक्षा हो जाती है. यह अपेक्षा कभी उत्पत्ति के लिये कभी स्थिति के लिए और कमी शति-ज्ञान के लिये होती है, अतः इस दोष के तीन भेद हैं उत्पत्ति में अन्योन्याश्रय, स्थिति में अन्योन्याश्रय, और ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रय । उत्पत्ति में अन्योन्याश्रय
यह अन्योन्याश्रय तब होता है जब किन्हीं दो वस्तुओं को अपनी उत्पत्ति के लिये परस्पर में ही एक दूसरे की अपेक्षा हो जाती है, जैसे यदि यह कल्पना की जाय कि विनध्वंस के प्रति मजल कारण है
और मङ्गल के प्रति विघ्नध्वस कसा है तो पहला मामा दोर से : हो पायगी, क्योंकि इस कल्पना के अनुसार न माल के विना विधाभ्वंस की उत्पत्ति हो सकेगी और न निजध्वंस के बिना माल की उत्पत्ति हो सकेगी, फलतः दोनों ही उत्पन्न न हो सकेंगे । स्थिति में अन्योन्याश्रय
यह अन्योन्याश्रय तब होता है जब किन्हीं दो वस्तुओं को अपनी स्थिति के लिये परस्पर में ही एक दूसरे की अपेक्षा हो जाती है, जैसे परमाणुओं से पृथक समुदाय की और समुदाय से पृथक् परमाणुओं की उपलब्धि न होने से उन दोनों को यदि परस्पराश्रित मान लिया जाय, तो यह मान्यता अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त होगी, क्योंकि परमाणु जब स्वयं समुदाय में आश्रय पा लेंगे तगी समुदाय के आश्रय बन सकेंगे, इसी प्रकार जन समुदाय स्वयं परमाणुओं में आश्रय पा लेगा तभी परमाणुओं का आश्रय बन सकेगा, फलतः दोनों ही आश्रय हीन हो जाने से अपना अस्तित्व ही खो बैठेंगे। सप्ति में अन्योन्याश्रय
यह अन्योन्याश्रय तब होता है जब किन्हीं दो वस्तुओं को अपने ज्ञान के लिये परस्पर में ही एक दूसरे के ज्ञान की अपेक्षा हो जाती है । जैसे यदि गौ का लक्षण किया जाय सास्ना-सादड़ी-गले के नीचे लटकनेवाला चमड़े का थैला और सास्ना का लक्षण किया जाय गौ का एक विजातीय अवयव, तो ये द्वोनी लक्षण अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त हो जायेगे, क्योंकि सास्ना का ज्ञान हुये बिना गौ का और गौ का शान हुये विना सास्ना का ज्ञान न हो सकेगा।
प्रकृत में प्रायश्चित आदि से अजन्य विघ्नध्वंस के प्रति मंगल को, एवं मंगल से अजन्य विनध्वंस के पनि प्रायश्चित्त आदि को कारण मानने पर अप्ति में अन्योन्याश्रय होगा, क्योंकि जब तक कुछ विघ्नवसों में पाश्चियतादि जन्यता एवं कुछ विश्नवतों में मंगलजन्यता का ज्ञान न होगा तब तक उन अजन्यान्त विशेषणों की सार्थकता का ज्ञान न हो सकेगा और जब तक उनकी सार्थकता का ज्ञान न होगा तब तक व्यभिचार होने के कारण विनस में प्रायश्चित्तादिजन्यता अथवा मंगलजन्यता का शान न हो सकेगा ।