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० क० टीका० हिं० वि०
( स्था० ) न च प्रायश्विचाद्यनाश्य विघ्नध्वंसे मङ्गलं हेतुरतो न दोष इति वाच्यम्, प्रायश्वितादीनामपि मङ्गाद्यनाश्यविघ्नध्वंसं प्रति हेतुत्वेऽन्योन्याश्रयात् । जिस प्रकार "कारीरी' से प्रतिबन्धक की निवृत्ति होने पर अपने अन्य कारणों से ही वृष्टि सम्पन्न हो जाया करती है ।
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यदि यह कहा जाय कि “समाप्ति को महल का फल मानने पर मङ्गल से निषिधमतापूर्वक समाप्ति रूप फल की कामना नहीं हो सकेगी तो यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि 'सविशेषणे हि विधिनिषेध विशेषणमुपसंक्रामतः सति विशेष्यबाधे - विशेषणसहित विशेष्य में बताये जाने वाले विधि या निषेध विशेष्य में बाधित होने पर विशेषणगामी हो जाते हैं' इस नियम के अनुसार निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति में बतायी जाने वाली मङ्गलकाम्यता उसके विशेष्य अंश " समाप्ति में बाधित होने के कारण, उसके विशेषणअंश निषिघ्नता में मान ली जायगी, अतः मंगल से निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति की कामना होने में कोई बाधा नहीं हो सकती
विचार करने पर नधीन आस्तिकों का यह मत भी समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि मंगल के न होने पर भी प्रायश्वित आदि विघ्नध्वंस के होने से व्यतिरेकव्यभि चार होने के कारण विघ्नध्वंसको भी मङ्गल का कार्य मानना सम्भव नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि 'प्रायश्चित्त आदि से उत्पन्न न होनेवाले विघ्नध्वंस के प्रति मंगल को कारण मानने से यह दोष न होगा, तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि जैसे प्रायदिवस आदि से होने वाले विघ्नध्वंस को ले कर व्यतिरेकव्यभिचार होने से विघ्नध्वंसमाजके प्रति मङ्गल कारण नहीं हो पाता, उसी प्रकार प्रायश्चित्त आदि के अभाव में मंगल से होने वाले बिघ्नध्वंस को ले कर व्यतिरेकव्यभिचार होने से विघ्नध्वंसमात्र के प्रति प्रायश्चित आदि भी कारण नहीं हो सकता, अतः जैसे प्रायश्चित आदि से उत्पन्न न होने वाले विघ्नध्वंसके ही प्रति मंगल को कारण माना जायगा उसी प्रकार मङ्गल से उत्पन्न न होने वाले विघ्नviसके ही प्रति प्रायश्चित आदि को भी कारण मानना पड़ेगा, फलतः विघ्नध्वंस और मंगल के बीच इस प्रकार के कार्यकारणभाव की कल्पना करने पर अन्योन्याश्रय दोष हो जायगा, क्योंकि जब यह निश्चय न हो जायेगा कि विघ्नध्वंस तो मंगल से भी उत्पन्न होता है और प्रायश्रित आदि से भी उत्पन्न होता है तो विघ्नध्वंस किस प्रकार का है ? मंगल से जननयोग्य ? या प्रायश्चित से जननयोग्य ? तब तक विघ्नध्वंस में 'प्रायश्चित आदि से उत्पन्न न होने वाले तथा 'मङ्गल से उत्पन्न न होने वाले' इन विशेषणों की सार्थकता का ज्ञान न होगा, और जब तक इन विशेषणों की सार्थकता का ज्ञान न होगा, तब तक
१. ' कारीरी' एक वैदिक इष्टि-लघुयज्ञ है, जिसके लिए वैदिक मान्यता है कि जिसे पूर्वकाल में देश में अवर्षण होने पर किया जाता था और जिसका विधिवार अनुष्ठान होने पर वृष्टि हुआ करती थी । उसके यथा विधि अनुष्ठान से आज भी वर्षा करायी जा सकती है; उस दृष्टि में 'करोर' से होम करने का विधान है । 'भय' के अनुसार 'करीब' सोमलता जैसी एक विशेष प्रकार की लता का अह्कर है और 'निघण्टु' के अनुसार बाँसका अङकुर है, उत्तर भारत के कई प्रदेशों में उसे 'करोम' कहा जाता है । 'कार्याष्टिकामो यजेत' इस अति से उसका विधान है ।
शा. वा. ३