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________________ स्था १० टीका वहिक वि० यत्त 'तमसो नयस्वे प्रौद्यालोकमध्ये सर्वनो घनतरावरणे नमो न स्यात्, तेनोऽपगोन तत्र तमोऽवश्वानां प्रागनयस्थानाम. सर्वतस्तेराम पाऽन्यतोऽप्यागममाऽसम्भवान' इति वर्षमा नेनोक्तम् । तदसत् , 'यद् द्रव्यं यद्न्य साजन्यं वद तपादानोपादेयम्' इति कपातेस्तेजोऽभिरेव तत्राधिकारारम्भस्थीफारात् । न च तेजसस्तेमस पवारम्भकत्वादमुक्तमेतविति वामे, नियतारम्भनिरासादिति दिए । भाव ही तमनही मार मालोक के संसर्गाभाष का समुदाय तमदास समुशाप में मालोक का धंस मौर आलोक का प्रागभाष भी प्रदिए म समुदाय के पक्षक भावले की जारी दामे कर समुदाय उत्पान की और भालोकमायभाय का माश होने पर समुदाय के माश की प्रतीति ठीक उसी प्रकार. उपपम्म हो सकती है जैसे किसी राशि के फन में को उत्पत्ति, पबै कुछ अंश का नाश होने पर उस पशि की उत्पत्ति, और कुछ मश का नाश होने पर उस राशि को उत्पसि पोर इस गांव के माया की प्रतीति होती है।"-केतु विचार करने पर यह कहना भी उचित नौ प्रतीत होता, क्योकि ऋथ्य की राशि और अमाय के समुदाय में अन्तर है, ध्यराशि में से किसीप के राशि से अलग हो जाने पर राशिमतपूर्वबहुत्य का माश और राशि में किसी सजानीय नये अन्य शामिल होने पर नपे बन्द की उत्पत्ति होने से उस बहुग्ध के मre iशि में भी नाश एवं उम्पशि का व्यवहार नो हो सकता है, पर अभाव पव्य न होने से उस में बाघ को इासि आदि का सम्भव न होने से भभावसमुदाय में उम्पत्ति-विनाश फी प्रनीति का आपन शक्य नहीं है 1 दूसरी बात यह है कि तम के उत्पभि-विनाश की प्रतीति एक माम् व्यनि की उत्पति विनाश के रूप में अनुभूत होती है, जो समूह के पास घिनाश की प्रतीति सर्वथा विलक्षण है। नील तमा' प्रतीति में भ्रमरूपता की धापत्ति इसके अतिरिक्त तम के अभा त्रत्व पक्ष में यह भी गोप है कि तम को अभावरूप मानने पर उस में होने याली नीलप्रतीति को भ्रम मामना पडेगा, और मानीलमनोति के वारणार्थ भनीलसनीति में तम स्वरूपो . अरविशेष को या नीलनमानकदोष को प्रतिबन्धक मानना होगा. सम में से जो भायश्व फाक्षान रह पर और रस काम में अमा माण्य प्रान न रहने पर मनीलप्रतीति का प्रतिबन्ध नहीं होता, असा प्रसिवन्धक में मप्रामाण्यवानाभायषिशिवतेजोमाघयकारकशालाभाष को विशेषण Aा कर उस शान को प्रशियाधकता में उनका मानना पडेगा, जिसके कारण नम की अभावरूपसा का पस अस्थत गौरवग्रस्त बोस | वर्धमान उपाध्याय के मत का खंडन तम मुस्यत्वपक्ष में बगान उपाध्याय ने यह होप दिया है कि-"जिल प्रदेश में प्रौद भालोक फैला है, उस प्रदेश के मध्यभाग को चारों ओर से दुभंघ गापरणों द्वारा सम्पम्स घनरूप में बात कर देने पर यह साधकार हो जाता है, किन्तु अन्धकार यदि वष्यरूप होगा, तो वहाँ से अत्यलाभ हो सकेगा, क्योकि भाषण के पूर्व अस पा. वा. .
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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