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________________ शास्त्रमा समुल्लाप-पतयक { प्रयोक . पत्र तमसोऽभावर गतिमस्य-परत्याउपरत्ययि मागादिप्रत्ययानामध्यनुपपत्तिः । न च स्वाभाविकातेराश्रयगल्यनुविधाननियमानुपपसिा, पारागप्रभायो सयादर्शनात कुवयायावरणभरे तन्नियमभङ्गस्य च प्रमायामिव छायावावपि तुल्यत्वात् । तदिदशकम् "तमः खल चलं नीलं परापषिमागवत् । प्रवद्रम्पधम्याद भषभ्यो भेसुमईति" । इति । 'तमो द्रष्पं, वरनरनिकरलहरीप्रभृतिशब्दैठयपदिश्यमानत्वान, फिरपारदिवत्' इत्यपि वदन्ति । स्थान में तेज के अवयव भरे थे, अतः उस समय यहां तम के अवयवों का होगा सम्भव 1. और आचरण के बाद आवरणरी कारणा प्रयखा आपरमार बात और असयों केही व्याप्त कारण से भी हम के मंखयका उस स्थल में पहुँचमा सम्भय नही फलनतम के अषयों का अभाव होने से उस स्थान में तम की उत्पत्ति सम्मय है।" विचार करने पर यह बोष सिद्ध नही होता, क्योंकि उक स्थान में जिस आलोक का वंस होने से तम की बात होती है उस मालोक के मवयवों से ही तम की पत्ति माग सको है। पह मामला भसंगस भी नहीं है क्योंकि जो व्य जिस इयर यल से उत्पन्न होता है यह उस वस्तवण्य के उपादान कारणों से ही उत्पन्न होता है, यह ध्या, सतनावी होती है यह नियम है, मन सेज के तेजोरूप मययों से तेज के विरोधी तम की उत्पत्ति नहीं हो सकती'-या शंका नहीं की जा सकती क्योकि पकजातीय से अन्यमासीय का आरम्भ नहीं होता या सजातीय से तामातीय का हो प्रारम्भ होता है. इस प्रकार का नियतारम्भ प्रमाण के अभाव में अमाग्य है प्रत्युत अग्नि के सम्पर्क से काष्ठ आदि म्यमों का दाह होने पर सम्मन के भारम्भक पृथिवी परमाणुषों से नये अग्नि की उत्पत्ति पचं भनि बुझने पर. उसके भारम्भक तेजपरमाणुमों से पार्थिव भस्म की उत्पत्ति होने में उस नियम का भङ्ग हो जाता है। [मक्रियावादप्रतोति को अनुपपत्ति] तम को अभावका मामने पर उस में गति, परत्वाऽपरस्य, विभाग भादि की प्रतीति भी उत्पन्न न हो सकेगी । करने का गाशय यह है कि भालोक दूर होने पर 'तम मागतम, पये भालोक का मन्निधान होने पर तमो गसम्' इस प्रकार तम में गति की प्रतीति होती है। "तमः पर --तमो दुर-नमः श्रपर तमो निकटम्' इस प्रकार तम में वैशिक परस्वणपरत्व की प्रतीप्ति होती है। एच 'वं समः तस्मातमसा पर -ज्येष्ठम, सत् तमःमस्मासमस पार-कनिष्ठं,'पस प्रकार तम में कालिक परव-मरत्व की भोप्रतीति होती है। 'तमः अस्मात स्थाना विभक्त स्थानान्तरेण च संयुकाम्' इस प्रकार तम में स्थाविशेष से विभाग की मार स्थानविशेष से सयोग की प्रतीति होती है, पर सम पषि अभावी होगा तो उस में गति-कर्म-परत्व मादि गुण न होने से उक्त प्रतीतियों की अनुपपति होगी । अतः व्यरूप मानना ही उचित है। १. रस्माकंगवारिया वितीयपरिच्छेदे भरत्नप्रभावकागिना गम |
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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