________________
२१२
शास्ववात्तासमुन्धप-हताक ! कोक . किं च अत्यन्ताभावो तमस उत्पत्तिनाशादिप्रतोतोना ममत्वं स्यात् । न च 'आलोकसंसर्गाभावसमुदाय एवान्धकारः, तत्र राशिष्षिर किश्चित्समुदायिन्यतिरेकप्रयुक्त एव विनाश, एवझत्पत्तिप्रत्ययोऽप्यूयः' इति शशधरशर्मणो बचन रमणीयम्, रामिषु बहुत्वविशेषनाशोल्पावाभ्यां तदाश्रयनाशोत्पाट प्रतीत्युपपत्तावपि प्रकने तदयोगात्, समूहविलक्षणमहदेकोरपादापनुभवास्न । म च, एक नीला' इत्यानिधियो भमत्वं, तत्र 'नेदं नीलम्' इत्यादि साक्षात्कारे वस्तुस्वरूपस्यादृष्टविशेषस्य वा दोषस्य वा प्रतिषम्यकत्व, तत्राप्यप्रामाण्यग्रहामावविशिष्टतेप्रोभावत्वप्रकारकज्ञानादीनामुखजकत्वं कल्पनीयम्, प्रस्थतिगौरवम् ।
मी अचानुष होगा 1 मतः उपस जमाव को अपरमस मावि कप मानने पर का बानुषप्रत्यक्ष न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय नि- "वक्त समाज के प्रतियोगी का रूपन्यवान जमकत्व या रूपत्वम्या यजातिवामजानकायका से उक्त लक्षों में प्रवेश न कर इन विशेषजातियों के रूप में प्रपेश किया जायगा ओ आसियां उन तेजो में उन तेजों के भस्तित्वकाल में होने वाले रूपस्वप्रकारक पर्ष रुपयव्याम्पमासिमकारक प्रत्यक्षहान से बात होती है। भाशय यह है कि जिस तेज के सम्भिधाम में वास्तु के कपसामान्य काही प्रत्यक्ष होता है उस सेज में प्रेसी जाति मानी जायणीस जाति के द्वारा यह तेज धस्तु के रूपसामान्य का ही ग्राहक हो, पवं जिस तेज के सन्निधाम में वस्तु की नीलपीताविकपता का प्रत्यक्ष होता है उस सेज में पेसी काति मानी शायणो जिसके द्वारा तेज रूपत्वष्याप्यजाति का ही प्राहक हो । इस कातियों के रूप में तत्तसओं को मयसमसादिकप अमाय का प्रतियोगी मानने पर मघतमलादि के पावषप्रत्यक्ष की भनुपपत्ति न होगी क्योंकि मषतमसावि कप अभाव के प्रतियोगि-तेश वम जातियों के रूप में बाह्य होते है ।"-किन्तु यह धन टिक नहीं हो सकता । क्योंकि बिन तेलों से वस्तु की पीताविरूपता का प्रत्यक्ष होता है उनसे वस्तु के कपसामाग्य का भी प्रत्यक्ष होता ही है। इस प्रकार जिन तेको से सामान्य मनुष्य को वस्तु के रूपसामान्य काही प्राण होता है उस तेज से तीन नेत्रनिवाले मनुष्य की नीलपीनादिरूपता का भी प्राण होता है। अतः रूपप्राशक तेसो में पक रीतिसे झातिभेद की कापना अशक्य होने के कारण उनके आधार पर अवतमस आदि के कथित अमानुषत्व की भापति का परिहार असम्भव है।
{'तमः उत्पन्न नाम वा' प्रतीति की मनुपपत्ति] तमको भालोक का अभ्याताभाष मानने पर एक दोष यह भी होगा कि 'तमः अत्यन, समो मधुम्' इस प्रकार सम की वत्पत्ति मादि को जो प्रोति होती पान हो सकेगी, क्योकि अत्यन्ताभाव के निरय होने से उसकी बरपति और उसका बिना मसम्भव है। इस पर भाधर शर्मा का यह कहना है कि-'भालोक का केवल भAT