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शा. वा० समुच्चय । न च स्वसमसरव्यविघ्नस्थलीयसमाप्तौ मङ्गलं हेतुः, नास्तिकानुष्टितस्थले च जन्मान्तरीयमङ्गलादेव समाप्तिरिति वाच्यम् , विघ्नाधिकसंख्यमजलस्थले समाप्त्यभावप्रसङ्गात् । न च 'स्वानधिकन्युनसंख्यविघ्नस्थलीयत्वं निवेश्यम, यत्र दश विघ्नाः पञ्च च पायश्चित्तेन नाशिताः, पञ्च च मङ्गालानि, तत्र समाप्त्यभावप्रसङ्गात् । नच प्रायश्चिसाधनाश्यस्वानधिकसंख्यविघ्नस्थलीयत्वं निवेश्यम् , बलवतो विघ्नस्य बहुभिर्राप मंगलैरनाशात् , बलवता मंगलेन बहूनामपि विघ्नानां नाशाच्च ।।
किंच विनः समाप्तौ विशेषणम्, उपलक्षणं वा? नायः, विघ्नस्यापि जन्यत्यापत्र, नात्या, नियतोपलक्ष्यतावचच्छेदकाभारादिति दिक् ।
(प्राचीन आस्तिकों की ओर से इस पर कहा जा सकता है क)
मङ्गल उसी स्थल में समाप्ति का कारण होता है जहां विनों की संख्या महल की संख्या के समान होती है। कादम्बरों' में विघ्नों की संख्या मंगल की संख्या से अधिक है। अतः मंगल के रइते भी उस ग्रन्थ को समाप्ति न होने से अन्धय-व्यभिचार नहीं है।
इसी प्रकार नास्तिक ग्रन्थों में मंगल के अभाव में भी समाप्ति होने को बात बतला कर जो व्यतिरेक व्यभिचार प्रदर्शित किया गया है, उस सम्बन्ध में यह बात कहो जा सकती है, कि नास्तिक ग्रन्थों की समाप्ति भी ग्रन्थकार द्वारा पूर्वजन्म में किये गये मंगल से की होती है। मंगल के अभाव में नहीं होती है। अतः व्यक्तिरेक-व्यभिचार भी नहीं है। किन्तु यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि मंगल को उक्त रीति से समाप्ति का कारण मानने पर जहां मंगल की संण्या विघ्नों की संख्या से अधिक होगी. वहाँ समाप्ति न हो सकेगा।
अगर कहे 'मंगल यहीं समाप्ति का कारण होता है जहाँ विघ्नों को संख्या मंगल की संख्या से अधिक नहीं होती । अतः जहां विनों की संख्या मङ्गल की संख्या से न्यून है घहां भी मंगल से समाप्ति होने में कोई बाधा न होगी:' तो यह भी कल्पना ठीक नहीं है, फ्योंकि पेला मानने पर जहां यिनों की संख्या दश हैं, जिनमें पांच का नाश प्रायश्चित्त से और पांच का नाश पांच मंगलों से होता है, यहां मंगलों को संख्या से विघ्नों की संख्या अधिक होने के कारण समाप्ति न हो सकेगी।
इस प्रकार, 'मंगल उसी स्थल में समाप्ति का कारण होता है जहां प्रायश्चित आदि अन्य उपायों से नष्ट न होने वाले विनों की संख्या मंगल की संख्या से अधिक नहीं होती' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जहां एक ही विनाना बलवान है कि उसका माश अनेक मंगलों से भी नहीं हो पाता, वहां मंगल की संख्या से विनों की संख्या अधिक न होने के कारण समाप्ति की आपत्ति होगी, पधं जहां एक ही वलयान् मंगल से छोटे मोटे अनेक विश्नों का नाश होता है यहां मङ्गल फी संख्या से विघ्नों की संख्या अधिक होने के कारण समाप्ति की उत्पत्ति न हो सकेगी।
१ अहम्मदाबाद-संवेगी उपाश्रयको प्रतमें 'स्वात्विकसूनसंख्या पाट है । विचार करने पर 'स्वाविकशून्यसंख्य'० अथवा 'स्थानधिकसंख्य'० बाट उचित लगता है ।