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स्या का टीका बहिनि
सिद्ध न होना । जैसे लेख कार्य के कागध से अतिरिक्त सकल कारणों के रहने पर कागज के विद्यमान हो जाने पर लेख कार्य होता है और कागज लेख के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं होता । अतः कागज में लेख को अन्वयच्याप्ति होने से कागज लेख का कारण होता है और कागज के रूप रंग आदि अन्यथासिद होने से लेख की अन्षय व्याप्ति से हीन होने के नाते लेख का कारण नहीं होते ।
अन्य व्यभिचार का स्वरूप है 'तदितरसकलतकार्य कारणसत्त्वे तस्सवेऽपि तत्कार्य जातीयकान्तरासत्त्वम्' । इसका अर्थ है-'अमुक कार्य के अमुक से अतिरिक्त सम्पूर्ण कारण होने पर अमुक के होने पर भी अमुक कार्य के सजातीय कार्यान्तर का न होना । जैसे 'कादम्बरी' से अन्य आस्तिक ग्रन्थों में समाप्ति के मङ्गलाति-रक्त सभी कारणों एवं मंगल के होने से उन अन्यों की समाप्ति हुई है पर, कादम्बरीमें वैसी ही दशा में समाप्ति नहीं हुई है । मंगल में समाप्ति के इस अन्य व्यभिवार को देख कर यह कल्पना की जा सकती है कि आस्तिकन्या में जहां मंगल समारत का नियत पूर्ववत्तों है वहां भी वह समाप्ति का कारण नहीं है किन्तु उसके प्रति अन्यथासिद्ध है।
इस प्रकार अन्वय-व्यभिचार के शान से अन्वय व्याप्त के शान का साक्षात् प्रतिबन्ध न होने पर भी उससे अन्यथासिद्धत्व का ज्ञान हो कर उसके द्वारा अन्वय व्याप्ति ज्ञान का तथा कारणता के अनन्यथासिव अश के ज्ञान का प्रतिबन्ध होता है । इस प्रतिबंध के कारण ही अन्वय-व्यभिचार को कारणतानिश्चय का विरोधी माना जाता है।
इस प्रसंग में इस रहस्य पर ध्यान देना आवश्यक है कि उक्त अन्वयन्या.म में तदितरसकलतत्कार्यकारणसहिततत्सव' ब्यान्य और 'तत्कार्य' त्र्यापक है । किन्तु उक्त अन्वय व्यभिचार में व्याप्य तो वहीं है पर अध्यापक तरकार्य नहीं है किन्तु 'तत्कार्य सजातीयकार्यान्तर' है | व्यापकता और अध्यापकता के धर्मियों में भेद होने से अन्वय व्याप्ति शान के प्रति अन्वयव्यभिचार की विरोधिता व्यापकत्व और अव्यापकत्व की दृष्टि से नहीं हो सकती । किन्तु अन्वय व्याप्ति के शरीर में व्याध्यांश में विशेषणभूत अनन्यथासिद्धत्व की दृष्टि से ही हो सकती है, और यह भी साश्चात् नहीं, किन्तु अन्यथासिद्धवज्ञान के सम्पादन वारा. क्योंकि अन्वयव्यभिचार के शरीर में व्याप्यांश में अन्यथासिद्धव का प्रवेश नहीं है अपितु उक्त प्रकार से अन्वयव्यभिचार होने पर व्यायांश में अन्यथासिद्धत्व की कल्पना कर ली जाती है।
व्यतिरेक-व्यभिचार से कारणता का विरोद्धव्य अंश :--
कारण का अभाव होने पर भी कार्य के होने का नाम है 'कारणव्यतिरेक में कार्यव्यतिरेक का व्यभिचार' । इससे कारण में कार्यनियतपूर्ववर्तिता' के शान का प्रतिबन्ध होता है। स्पष्ट है कि जन कार्य उत्पत्ति से पूर्व कार्य के उत्पत्तिस्थल में कारण का अभाव रहेगा तब कारण कार्य का नियतपूर्ववर्ती न होगा। इस प्रकार व्यतिरेकष्यभिचार कारणता के विशेष्य भाग कार्यनियतपूर्ववृत्तित्व अंश का विरोधी होता है ।
इस सन्दर्भ में यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेकम्यभिचार में दोनों अन्वयन्यामि और व्यतिरेकव्याप्ति के ज्ञान के प्रतिबन्ध द्वारा भी कारणता निश्चय के विरोधी होते हैं और सीधे भी विरोधी होते हैं, क्यों कि अन्वयव्यभिचार से कल्पनीय अन्यथासिद्धत्व का कारणलागत अनन्यथासिद्धत्व के । साथ सौधा विरोध है। इसी प्रकार कारणाभाव में कार्याभावके व्यभिचार-कारण में कार्यसमानाधिकरणअभाव के प्रतियोगिल्य का पारणतागत कार्यनियतपूर्ववृत्तित्व-कारण में कार्यन्यापकत्य-कार्यसमानाधिकरण अभाव के अप्रतियोगित्व के साथ सीधा विरोध है।