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शा०पा समुच्चय
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एक कार्य के कई कारण होते हैं जैसे लेखरूप कार्य के कारण हैं, कागज,-कलम-स्याही,-लेखक, लेखनीय विषय आदि । इन सभी कारणों में लेख की कारणता का निश्चय इसी आधार पर होता है कि इन सबों में किसी एक का भो अभाव रहने पर लेख का कार्य नहीं हो पाता ।
कारणाभाव में कार्याभाव की यह व्याप्ति ही कार्य में कारण की व्यतिरेकम्याप्ति का मूल होती है, और उसका स्वरूप होता है 'कारणाभावव्यापककार्याभावपतियोगित्व' । इसका अर्थ यह है कि कार्य का अभाष कारण के अभाव का व्यापक होता है और कार्य उस अभाव का प्रतियोगी होता है । कारणाभाव में कार्याभाव की व्याप्ति के अभाव में भी कारणता का निश्च य नहीं होता । अन्वय-व्यतिरेक-व्यभिचार:
यह कहा जा चुका है कि अन्वय व्यतिरेक मेद से व्यास दो प्रकार की है, अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकब्यास्ति । इसलिये क्याप्ति के विरोधी व्यभिचार के मा दो भेद है- अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक-यमिचार । अब इस बात पर विचार करना है कि इन व्यभिचारों के ज्ञान से कारणता के निश्चय का प्रतिबन्ध क्यों होता है 1 अन्वय-व्यभिचार से कारणता का विरोद्धय अंश :-...
कारणता का स्वरूप है 'अनन्यथासिद्धत्वे सति कार्यनियतपूर्ववत्तित्व' । इसका अर्थ है-...कार्य के प्रति अन्यथा सिद्ध न होते हुये उसके अव्यवहित पूर्वश्चग में साक्षात् उत्पत्ति स्थल में स्वयं अथवा अपने व्यापार द्वारा विद्यमान होना । कुछ कारण से होते हैं जो अपने कार्य के उत्पत्ति से पूर्व स्वयं विद्यमान रहते है, जैसे पट के कारण तन्तु आदि । और कुछ कारण ऐसे होते हैं जो कार्य से पूर्व स्वयं विद्यमान नहीं होते किन्तु उनका व्यापार विद्यमान होता है, जैसे स्मरण का कारण पूर्वानुभव ! पूर्वानुभव स्मरण से पूर्व स्वयं विद्यमान नहीं रहता किन्तु उसका व्यापार संस्कार विद्यमान रहता है।
कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध न होने का अर्थ है 'कार्य का नियतपूर्ववर्ती होते हुये भी जो कार्य के कारण नहीं माने जाते उन सभी पदार्थों से भिन्न होना । जैसे कागज, कलम आदि के रूपरंग, उनकी जाति, उनके उत्पादक, उनसे सम्बद्ध आकाश, उन्हें एकत्र करनेवाला नौकर, ये सब लेख कार्य के नियत पूर्ववर्ती होते हैं, पर ये लेव के कारण नहीं माने जाते । अतः लेाव कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध होने से ये लेख के कारण नहीं होते । कागज, कलम आदि अन्यथासिद न होने से लेत्र के कारण होते हैं ।
अन्वय व्यभिचार के ज्ञान से कारणता के इस अनन्यथासिद्धृत्व अंश के ज्ञान का ही प्रतिबन्ध होता है।
इस संदर्भ में वह ज्ञातव्य है कि अन्वयव्याप्ति के शरीर में व्याप्यांश में अनन्यथासिद्धत्त्व विशेषण देना आवश्यक है, क्योंकि उसके अभाव में अन्यथासिद्ध में भी कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति होने से अन्यथासिद्ध में भी कारगता के निश्चय की आपत्ति होगी, और जब अन्वय व्याप्ति के शरीर में व्याप्यांश में अनन्यथासिद्धत्व विशेषण रहेगा तब अन्यथासिद्ध में उस विशेषण के न होने से अन्वयम्याप्ति का ज्ञान न हो सकने के कारण उसमें कारगर्ता के निश्चय की आपत्ति न होगी । व्यान्यांश में अनन्यथासिद्धस्य विशेषण देने पर अन्नव व्याप्ति का स्वरूप होता है "तदितरसफलतत्कार्यकारणसत्वे अनन्यथासिद्धतस्सरचे तत्कार्यसत्त्वम्' । इसका अर्थ है--अमके कार्य के अमुक से अतिरिक्त मकल कारणों के रहने पर अमुक के विद्यमान होने पर अमुक कार्य का होना और अमुक का अमुक कार्य के प्रति अन्यथा