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________________ स्था र टीका व हिदि इस सन्दर्भ में एक बान और विचारणीय है। वह यह कि, समाप्ति और माल के बीच उक्त प्रकार से कार्यकारणभाव मानने पर मङ्गल से उत्पन्न होने वालो समाप्ति का स्वरूप छोगा मंगलसमसंख्यविघ्नस्थलीयसमाप्ति, अथवा मंगलानधिकसंख्यविघ्नस्थ. लीय समाप्ति, किंवा प्रायश्चित्तायनायम गलानधिकसंग्यविनस्थलीपसमाप्ति, इनमें विनस्थलीयसमादि: है निवासमात ४८मा लामामाधिकर-- सम्बन्ध से घिरनवती समापित । अब प्रम यह उगा कि समापित में विश्न 'विशेषण ६ घाइपरक्षण(१) यदि विन को समाप्ति का विशेषण माग कर विघ्नविशिष्ट समाप्ति को मल का कार्य मामा मायगा तो विघ्न को भी माल का कार्य मानना होगा, क्योंकि विशेषण और विशेष्य से अतिरिक्त विशिष्ट का अस्तित्व न होने से विश्न और समाति दोनों मंगल के कार्य न होंगे तो निषिशिसमाप्ति भी मैगल का कार्य न हो सकेगी। (९) और यदि विक्षा को समाप्ति में उपलक्षण मान कर विश्नोपलक्षित समाप्ति को माल का कार्य मामा जायगा, तो यह इसलिये उचित न होगा कि विश्न का समाप्ति में उपलक्षण होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उपलक्षण घही होता है जो उपलक्ष्यतावच्छेदक धर्म को व्यापक होता है. प्रस्तुत में समाप्ति उपलक्ष्य है, समाप्तित्य उपलक्ष्यतावच्छेदक है, वह निसर्गतः निर्विघ्न स्थल में होने वाली समाप्ति में भी है, उस समाप्ति में विघ्न का सामानाधिकरणय न होने से समाप्तित्व रूप उपलक्ष्यतावच्छेदक-उपलक्षणत्वेन विवक्षणीय घिन का व्यापक नहीं है अतः नियत-यापक उपलक्ष्यतावच्छेदक न होनेसे विघ्न समाप्ति में उपलक्षण नहीं हो सकता। १ विशेषण-विशेषण का लक्षण है 'विद्यमागत्वे सति व्यावर्तकत्व' । व्यावर्तक का अर्थ है , ईतर भेद का अनुमापक, इस पक्ष के अनमार विशेषण यह होता है 'नो विद्यमान रहने पर अपने आश्रय में इतरभेद का अनुमान करावे, जसे अपनच घर में नीलरूप, यह रूप जिस समय घट में रहता है उसी समय अपने आश्रय भूत घटको अनील घनों से व्यावृत्त कर सकता है, किन्तु पाक से नीलरूप का नाश होकर मरूप की उत्पत्ति हो जाने से पट जय रत्त हो जाता है तब निद्यमान न होने से नीलरूप उस पट का व्यावर्तक नहीं होता और इसी लिये उस समय वह पट का विशेषण नहीं कहा जाता । २ उपलक्षण-उपलक्षाग का लक्षण है 'अविद्यमानत्वे सति ज्यावर्तकल' । इस लक्षणके भनुमार उपलक्षण वह होता है जो विद्यमान न रहने पर भी उन वस्तुको, जिसके साथ उसका कभी सम्बन्ध रहा हो, अन्यों से व्यायन करे; जसे 'कुरुक्षेत्र' में कुरु । पूर्वकाल में कुरु नाम का एक राजा हो चुका है, जिसका उस समव इम क्षेत्र के माय सम्बन्ध था, वह इस समय नियमान नहीं है फिर भी इस क्षेत्र को अन्य क्षेत्रोंसे म्यावृत्त करता है अतः कुरुक्षेत्र में कुरु उपलक्षण है. विशेषण नहीं है। __ ग्रन्थों में एक प्रकार के और भी उपलक्षय का उहालेख मिलता है, उसका लक्षण है 'स्वचोधकत्वे सति स्वेतरोधकत्व-अपनी और अपने जैसी अन्य वस्तु की सूचना देने वाला । जैसे यदि यह कहा जाय कि पट का रूप तन्नुरूप से उत्पन्न होता है, तो रूप यहां स्पर्श आदि का उपलक्षय हो जाता है और उसका फल यह होता है कि 'पर का प तन्नुरुपसे उत्पन्न होता है, इस बात का ज्ञान होने पर 'पट के स्पर्श आदि तन्तु के स्पर्श आदि से उत्पन्न होते हैं ' इस बात का भी ज्ञान हो जाता है। किन्नु प्रस्तुत सन्दर्म में उपलक्षण का यह अर्थ पाहा नहीं है। चालु
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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