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________________ स्था०क० ठोका थ०वि० ३९३ तदुपपवारकत्वात् नापि तद्ध्वंसः आयश्वितानन्तस्कूल गोवषादिसोऽपि नरकालुष्पस्थापतेः । न च तत्तत्प्रायश्चित्तप्राग्वर्तिगोवधादिजन्यनरके तचत्प्रायश्विचतध्वंसस्था, | संस्कारउच्छेद भापति का परिहार ] इसके विरोध में यह कहना कि " किया तो अनुभव से अनुभव सभ्य संस्कार की भी गतार्थता होने से संस्कार का उच्छेद हो जायगा, क्योंकि स्मरण के प्रति स्वस द्वारा अनुभव को एवं तद्भविषयक स्मरण के प्रति संस्कारबादी के मतानुसार नमयविषयक संस्कार के उद्बोधक को विशेष रूप से कारण मान लेने से अननुभूत अर्थ के तथा पक अर्थ के अनुभव से अन्तर के पर्व सत्त अर्थ अनुभव से नियतकाल के पूर्व ही अर्थ के स्मरण के अति का परिवार हो जायगा "टीक नहीं है, क्योंकि जिसको क्रियास से अपूर्व की व्यर्थता मान्य है उसको अनुभव से संस्कार को भी पर्यत मान्य है । "अपूर्व न मानने पर जिस पापकर्म का प्रायश्चित कर दिया गया था जिस पुण्यकर्म का कीर्तन कर दिया गया है उस कर्म उन पुण्यकर्म के भी फल की आपति होगी, क्योंकि प्रायश्विन आदि होने पर भी तकिया नया का व्यापार अक्षुण्ण बना रहता है यह कहना नहीं है, क्योंकि मायदिवसाभाषवि शिष्ट पापकर्म को एवं कीर्तनाभार्थीविशिष्ट पुण्यकर्म को तत्रफल का कारण मान लेने से इस आपत्ति का अनायास ही परिक्षर हो जाता है। "दत्तफलककर्म एवं अतफलक फर्म दोनों को उद्देश्य करके भी प्रायश्चित किया जायगा, उस प्रायश्चित्त को भी प्रायविष का प्रतियोगी बनाने पर फलक कर्म से फल की पति और उसे प्रतियोगी बनाने पर असफलक धर्म से भी फलोरपति की आपत्ति होगी" यह कथन भी ठीक नहीं है कि उस प्रायश्चित्त को फल फकर्म नि उद्देश्यता सम्बन्ध से प्रायश्चित्ताभाव का मनियोगों चना देने से उत्तर आपत्तियों का परिवार को जाता है, क्योंकि मुत्तफलक कर्म में उक्त देवता से प्राय न रहने से वह मात्र freeteere [sो जाता है, अतः उसमे फल की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती. एवं अतफलक कर्म में उक्त उद्देश्य मात्राभाववत्कर्म नहीं बन जाना, अतः उसके से प्रायश्चिल रहने से वह कर्म पति की आपत्ति नहीं हो सकती । का समर्थन ] प्रायश्विवत्कर्म मे फलो प्रश्न होता है कि अयं को प्रायश्वित्तनाय न मानने का प्राधिको रक मादि का प्रतिबन्धक माना जायगा स प्रायश्वितध्वंस को मा नहीं हो सकता, क्योंकि प्रायश्चित शिविनाश होने से कालान्तरभावी नरकारि की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध नहीं कर सकता हा प्रकार दूसरा पक्ष भी प्राय न हो सकता क्योंकि दूसरे पक्ष में प्रायश्विन्त के पात्र किये गये गोवध आदि गायकर्मों से भी नरक मात्रि की उत्पत्ति हो गयेगी. क्योंकि पूर्ववर्ती प्रायश्वितस से उसका प्रतिबन्ध हो जायगा । था. पा. ४०
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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