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________________ शास्त्रवासांसमुख्यय-स्तबक १ ग्लो० १.६ ___अबोला नायिका :--'अस्तु तत्तनिकन्यास एवं व्यापार, किमपूत्रंण ? न चैव क्रिषायाः प्रतिपयकत्वव्यवहारापत्तिा, संलगीभावत्यादिना कारणीभूतामावतियोगित्वेनर तदुपयहारात् । न चैत्र संस्कारोऽघुक्ति , अनुभवसेनौंवोपपत्तेः उद्योधमाना विशिष्य हेतृत्वेनानतिप्रसङ्गादिनि धान्यम्, इष्टत्वात् । न च प्रायश्चिता दिकमणोऽपि फलापतिः प्रायश्चिसाधभाववत्कर्मत्वेन कारणवान् । न च दसदसफलो. देश्यकप्रायश्चित्ते कृते प्रतियोगिनि तत्प्रायश्चित्तस्य निवेशे दत्तफलादपि फल न स्थान, निवेशे चादनककादपि फल म्यादिनि स्याम्अदत्तफलनिष्ठोदश्यतया तबभावस्य वाच्यत्वात् । एतेन “प्रायश्चितं न नरकादिप्रनिबन्धकम्. भाविनाशित्वेन घुलमिला रहता है, न कि आत्मा कृटस्थ निष्प्रदेश है भोर मरट उस से अत्यन्त गृया अपना अस्तित्व रखता है और न याहो कि जिस प्रकार के सांप के पार के अपर विचमान रखता है उसो प्रशार आए श्रात्मा में सम्पन्न होता है। शहर एक पक तिरूप में सादि होते हुये भो प्रघाट रूप से भवामि होता है। सूक्ष्म रष्टि से विषय का पर्यालोचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्य विद्वानों ने भामा में जो शक्ति या पासना मानी । उसके प्रयोजनों का मिर्थातक पा माप को है। इस से मिग्न शक्ति या वासना का अस्तिन्य तर्कसंगत नहीं है। विवासात्मक व्यापार से बह के गतार्थत्व को शंका-उखल] सैघाकि मारपता का यधन म माननेवाले नायिकों का इस मद में यह कहना कित्तरिया के पर्वस को नतरिक्रपा का व्यापार मान लेने से कालान्तर में किया के फल की उपासि हो सकमा है बब-नः उसके लिए अपूर्व अहए की कल्पना व्यर्थ है। A कहना कि-"क्रियानंस को कालान्तरभावी क्रियाफल के प्रति कारण जन पर क्रिया में उसके फल प्रति विषयक व्यवहार की आपत्ति होगी क्योंकि कार्य के प्रति जिस का अभाय कारण होता है उस कार्य के प्रनि पा प्रतिवन्धक हाता-"ठीक नहीं है क्योंकि या नियम नहीं है कि 'जिप्त का भभाष जिस का कारण हो यह कार्य का प्रतिबन्धक श्रोता है किन्तु यच नियम है कि 'जिसका जित कार्य का में लगामायस्वरूप से कारण होता है, यह उस कार्य का प्रतिव होता। तसक्रिया का च कालान्तरमावी तत्तक्रियाफल के प्रति शसरिका पाध्यसत्य रूप से कारण है कि संसर्गाभावत्वकप से अन्यथा तत्तत्मिाया के पर्ष भी मिया का प्रागभावरूप संलगायाध रहने से, तसस्क्रिया के पूर्व भी तसलियाफल को आपत्ति होगी, पर्व नसक्रिया के प्रका में भी नसस्किया का अत्यन्ताभाष निसर्गाभाव रहने से तसलियर के अकतों में भी अत्तरिया के फल की मार होगकलतः संसर्गामायस्वरूप से कारणीभूत अभाष का प्रतियोगी न होने से सशस्क्रिया से सत्तरिक्रयाफल के प्रति प्रतिवम्धकत्व व्यवहार की मापत्ति नहीं हो सकती।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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