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शास्त्रमाप्तिमुच्चय तज्जन्यसंस्काराणां व्युत्थानादिसंस्कारविरोधित्वात् तत्प्रभवप्रत्ययाभावेऽप्रतिहतप्रसरः समाधिः । ततस्तज्जा प्रसा, ततस्तत्कृताः संस्काराः, इति नवो नवः संस्काराशयो वर्धते । ततश्च प्रज्ञा । ततश्च संस्कार इति । ततो योगिप्रयत्नविशेषेण सम्प्रज्ञातसमाघेर्युत्थानजानां च संस्काराणां निरोधादसम्प्रज्ञातसमाधिर्भवति । तदुक्तम्-"तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधाद निर्विजः समाधि:' (पा०१-५१) इति । तदा च निरोधचित्तपरिणामप्रवाहस्तजन्यसंस्कारप्रवाहवावतिष्ठते । तदुक्तम्-"संस्कारशेषोऽन्यः" (पा० १-१८) इति । ततः प्रशान्तवाहिता संस्कारात् । सायकिय चित्तस्य निरिन्धनाग्निवत् प्रतिलोमपरिणामेनोपशमः, तत्र पूर्वप्रशमनितः सहकार उत्तरोत्तरपशमहेतुरिति । ततो निरिन्धनाग्निवत् चित्तं क्रमेणोपशाम्यद व्युत्थानसमाधिनिरोधसंस्कारः सह स्वस्यां प्रकृतौ लीयत इति ।
"निविचार समाधि का वैशारद्य होने पर आत्मा में प्रसाद का उदय होता है। 'वैशारब' का अर्थ है चित्त को शुद्ध सात्त्विक वृत्तियों का पकाकार स्वच्छ प्रवाह । निर्विबार समाधि का सुचिर अभ्यास करने पर चित्तसत्व किसी एक सूक्ष्म विषय में स्थिर हो जाता है। उसी एक विषय में उसकी स्वच्छ सायिक वृत्तियां प्रवाहित होने लगती हैं। निर्विचार समाधि की इस अवस्था को ही उसका धेशारच कहा जाता है । 'आत्मा में प्रसाद के उदय' का अर्थ है-पुरुष में वस्तुभूत अर्थ के क्रमहीन ज्ञानात्मक प्रकाश का प्रादुर्भाव । जब निर्विचार समाधि विशद होती है तब योगी का निर्मल चित्त सम्पूर्ण सत्य पदार्थो को सहसा भालोकित कर देता है। योगी पक ही समय सारे सत्य पदार्थों का साक्षात्कार करने लगता है।
समाधि की उक्त अवस्था में जो प्रशा उत्पन्न होती है उसे स्तम्भरा' कहा जाता है। इसमें सत्य पदार्थ का ही भान होता है, भ्रम का कारण न होने से इसमें किसो असत्य पदार्थ का भान नहीं होता । इस प्रशा का यह नाम यौगिक है, सान्वर्थ है, भाष्यकार ध्यास ने इसे 'उत्तम योग' की संज्ञा प्रदान की है और आगमश्रवण, अनुमान-मनन तथा भादर पूर्वक पुनः पुनःचिन्तन-निदिध्यासन से इसकी उत्पत्ति बतायी है।
ऋतंभराप्रक्षा से उत्पन्न संस्कारव्युत्थानअवस्था असमाधि अवस्था में होनेवाली प्रथा के संस्कारों का क्षय कर देती है। उन संस्कारों का क्षय होने पर तन्मूलक प्रतीतियों की उत्पत्ति के निरुद्ध हो जाने से समाधिसिद्धि की बाधा दूर हो जाती है। फिर समाधिसिद्धि होने पर समाधि से प्रज्ञा और प्रज्ञा से संस्कारों के जन्म का सातत्य चल पबसा है, जिस के फलस्वरूप नित्य नूतन संस्कारों की सृष्टि होने लगती है। इस प्रकार प्रक्षा और संस्कारों का चक्र अधिरत गति से चालु हो जाता है । योगो जय विशेष प्रयत्न द्वारा सम्प्रज्ञात समाधि और व्युत्थान अवस्था के संस्कारों का निरोध कर इस सक को रोक देता है नब असम्प्रशात समाधि का प्रादुर्भाव होता है। जैसा कि निर्बीज समाधि के नाम से उसका लक्षण बताते हुये कहा गया है कि प्रथा के साथ प्रश्ना अन्य संस्कार का भी निरोध हो जाने पर सर्वनिरोध हो जाने से निर्बीज समाधि का उदय