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________________ ..२९६ शास्मातासमुपप-इतबक १ प्रलोक ९२ सर्वम तदापन । न प भेगमात् तथा, नतः साक्षात् मुखादितौम्यान, धानुवैषम्यारे रुत्तरकालवार, पिचादिरसोझोध्यक्षानुवैषम्यादिविरहिनदुग्धपाननादिना मुखादिहेतृत्वे गौरवात, अप्रपोग्यजातिभ्याथजात्यच्छिन्नं प्रत्येव दुग्धपानातुनौचित्याकति दिग ॥१२॥ से नहीं उमडता उसे उससे दुख होता है। ककसी के भक्षण में भी किसी को सुम्र और किसी को गुम्ब उपर्युक कारण से ही होता है। तो इस प्रकार दुग्धपान से होने वाले शिरस के उबोध मोर पनरोध से ही जब मुम दुःख श्रादि प्रितम फल की प्रापति हो सकती है तब उसके लिये भइयमेव की कल्पना अनावश्यक "-तो यह कथन होक नहीं है, पोंकि उक्त धामुयें तो सभी मनुष्यों के शरीर में विद्यमान रहती है तो दुग्धपान से किसी मनुम्म में पित्तरल का उपोध होता है और किसो में न हो, या पेषम्य भी मरवैषम्य के बिना कैसे सम्मय हो सकेगा । अतः स चैपम्य के लिये ही मर वैषम्य की कल्पना भाषश्यक हो जायगी । औषध के स्थान्त से दुग्धपान से मुखादिमेव की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि औषध से मुखादि का उदय सब को समान हो होता है, बाद में होने वाला परिणामधेसम्म तो बाद में होने वाले धातुवैषम्य से होता है। यदि यह कहा जाय कि-"पित्तरस से उबुद्ध होने वाले यातुयैषम्य से शून्य पुग्धपान तो सुख का कारण है, कुग्धपानमा सुख का कारण नहीं है"-तो दुरपान की अपेक्षा गुरुर समविष बुधव को कारणावरुछेदक मानने में गौरव होने से यह कथन संगत नहीं हो सकता । दूसरी बात था कि दुग्धपान को मुखमात्र के प्रति कारण मानने की अपेसा मष्ठायोग सुयत्वजाति से व्यायविभातीयसुरवाडिया के प्रति कारण मानना का पिता है। बाशय पर है कि भार के दो भेद होते है-धर्म मौर अधर्म जिन्हें पुण्य भोर पाप भी कहा जाता है। पोनों प्रकार के मष्टों में दो प्रकार की कारणताये रहती है। एक कारणता कार्यसामान्य की कारणता और तृतरी मुन-तुम्न की कारणता । संसार के प्रत्येक कार्य से किसी को सुख और किसी को दुःख होता है अतः सभी कार्यों के प्रति धर्म और अधर्म ये दोनों ही प्रकार के मर.ए कारण होते हैं। कार्यमात्र के प्रति भर की या कारणता पाले प्रकार की कारता है। धर्म सुख मात्र का और अधर्म तुम्नमाण का कारण होता है क्योकि धर्म के विमा किसी प्रकार का सुन मोर भधर्म विना किसी प्रकारका तन्त्र नहीं होता, धर्म और मधर्म में सस्त्र-हास की या कारणताही महकी खरीकारणताहैइस इसरी कारणता के अनलार सखा साल से भीर अधर्मका अरए की प्रयोज्य जातिवा. सौर विशातीय. सुखख एवं विशातीय सरव मंदमप्रयोग्य उमातियों की व्याप्य जातियां है, दुग्ध पान भादि सुखमात्र के कारण म होकर इन व्याप्य बातीयानुग्न केही कारण होते हैं, पोति यति पाम भादिको खुखासामान्य का कारण माना जायगा तो धान, पत्रिपान, मधुपान, भारसपान भाति से होनेवाले सुखों में लोकानुभवसिद विश्व की अपपत्ति न होगी। पुरधाम से विजातीयमुख भी सब को एक ही समान नाही
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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