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________________ arn - - -- - - - -- - - - .. M .." स्था ठीका पEिO इवमेवामिमेल्याहमूलम् - तस्भादवश्यमेष्टव्यमत्र हेत्वन्तरं परः । तदेवाहमित्यारन्ये शास्त्र कृतश्रमाः ॥ १३ ॥ तस्माम् तुल्येऽप्यारम्भे फाममेवदर्शनाव अत्रफलमेनिमितं, परेश चावाकः, हेत्व. न्सरमवकपमध्यम् अनायत्या नियमनासयकायम् । तदेव इत्यन्तरं शासकृतश्रमा:अध्ययनभाननाभ्यां गृहीतशास्त्रतात्पर्याः, अन्येः-आस्तिका, अष्टमाहुः । तथा पार भगवान् भाष्यकार: 'जो तुलसाठणाणं फले विसेसो न सो विना हेउं । कज्जतणो गोयम ! घडोन हेक असे कम्मः || [वि. मा भा० २०६८ ॥ इति ।। ९३ ।। होता, मतः विभिन्न मनुष्यों को सुगनपान से होनेवाले विजातीय मुममेदों के लिये धर्माघर मेव की भी कसपमा अपरिहार्य है। इस पूरे सन्दर्भ का निष्कर्ष यह है कि लोक में पश्यमान कार्यवित्र्य की उपपत्ति अपविश्य को लोग किसी अन्य हेतु से नहीं हो सकनी अनः अष्ट की सिद्धि इच्छा ने पर भी अवश्य माननी होगी |२२|| [ महरा का स्वीकार खावश्यक है ] भर के लम्बन्ध में पूर्वकारिका के अभिमाय को ही इस कारिका ३३ में स्फुट किपर सपा अनुप्यों का प्रयन्न समान होने पर भी उनके प्रयत्न मन्य फलों में भेद देखा जाता है, रस की उपसि के लिये वार्याक को इच्छा न होने पर भी हेत्वन्तर की सत्ता स्वीकार करनी होगो, उसी हेवातर को घे आस्तिक-झिम्हों ने अध्ययन-मनन द्वारा शास्त्रों का सापर्य समझा है- 'घर' कहते है। विशेपावश्यक भाष्य की मोतुजल' गाया में भगवान भाष्यकार जिनमतगणी समाधमण ने भी यही यात कही है, गाथा का अर्थ इस प्रकार है___ 'साधनों के समान होने पर भी जी उपके फलों में मेव होता या किसी विशेष कारण के विना नहीं हो सकता, कोंकि वे कन्ट कार्य है और कार्यो में भेर कारणमेव सोता ने घटे एक कार्य है उसके औरट आदि कार्यों का विक मादि सामान्य कारण समान है, किन्तु मर चक आदि कारणों के भेड में घट पर आदि कार्यों से भिन्न होता है. दसी प्रकार समान साधनों में होने वाले फलों में उपलभ्यमान मेव के लिये भी हेसुमेर आवश्यक है, वह विलक्षण हेतु दी कम अर' ||३|| [ फा भेदोपपति के भन्न प्रकार का निरसन ] 'समान साधनों से फलभेव की उपाणि अन्य प्रकार में भी हो सकती है'-चार्याक केस गभिप्राय का प्रस्तुत कारिका ९४ में भिगकरण किया गया है १-यस्तुल्पसाधनागां पति विपन बिना हेनन् । कार्यसतो गोनन । घटः च नृश्य तम्प कः ॥" छा.या.२८
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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