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________________ ३८ शा० घा० समुच्चय न च 'आनन्दम्' इत्यत्र नपुंसकलिजुत्वानुपपत्तिः, छान्दसत्यात् । न च 'आनन्दं ब्राह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम्' इति भेदपरपष्ठश्चनुपपत्तिः, 'शहोः शिर' इति वद भेदेऽपि षष्ठीदर्शनाद्, 'इति वाच्यम्; आत्मनोऽनुभूयमानत्वेन नित्यसुखस्याप्यनुभवप्रसङ्गात्, मुखमात्रस्य स्वगोचरसाक्षात्कारजनकत्वनियमात् । और उसमें निस्य ब्रह्म का अमेद बाधित होने से नित्य सुख की सिद्धि हुये विना सुख में निस्य ब्रह्म के अभेद् का बोध सम्भव नहीं है, तो उनके उत्सर में यह कहा जा सकता है कि नित्यसुख की सिद्धि के पूर्व उक्त रीति से सुख में ब्रह्म के अमेन का बोध यदि सम्भव नहीं है, तो न हो, फिर भी उक्त श्रुतिषचन से सुख में ब्रह्म के अमेद योघ को अन्य प्रकार से उपपन्न किया जा सकता है, और बहु प्रकार यह है कि उक्त श्रुति पहले 'निश्यम् आनन्दम' इस भागसे नित्य सुख का बोध उत्पन्न करती है और बाद में वही श्रुति 'भानन्दं ब्रह्म' इस अंश से ब्रह्म के अमेद का बोध उत्पन्न कराती है, अतः उक्त श्रुति से ब्रह्मरूप नित्यसुनकी सिद्धि में कोई बाधा न होने से उसके आधार पर मोममें सुख का अस्तित्व स्वीकार करने में कोई अडचन नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'पक ही थतिवाषय से कम से 'नित्यम् आनन्दम्' तथा 'आनन्दं ब्रह्म' ये दो बोध मानने पर वाक्यभेद दोष होगा, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त श्रुति वाक्य को दो अवान्तर वाक्यों से निष्पन्न पक महावाक्य मान कर वाक्यैकवाक्यता मान लेने से वाक्यसेदका परिहार किया जा सकता है। यदि यह कहा जाय कि उक्त श्रुति वाक्य में आये 'भागन्द' शब्द को सुख का बोधक न मानकर सुन के आश्रय का बोधक मानना होगा, अन्यथा "गुणे शुक्लाद्यः पुसि' शुक्ल आदि शम्द गुण के बोधक होने पर पुल्लिङ्ग होते है इस नियम के अनुसार आनन्द शब्द का नपुंसकलिङ्ग में प्रयोग असंगत होगा," तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि उक्तवाश्य में १ इसका अन्वय पूर्वमें आये 'नच 'नित्यं विशानमानन्दं ब्रहा' इति अतिरेवा-मानम्' के साथ है। २ वाक्यभेद-जिस त्राय बसे दो स्वतन्य बोध, ऐसे बोध जिनमें दो मुख्य विशेष्यता होती है.-उत्पन्न होते हैं, वह वाक्य स्वरूपतः एक होते हुए भी अर्थतः दो हो जाता है, यह स्थिति बाक्य का दोष है, क्योंकि एकवाक्य से दो वाक्यों का कार्य लेने में श्रोता को कठिनाई होती है । ३ वाक्यैकवाक्यता-एकवाक्यता का अर्थ है 'एक बोध को जिसमें एक ही मुख्य विदोप्यता ही उत्पन्न करना' 1 इसके दो भेद होते है-पदैकवाक्यता और वाक्यैकवाक्यता । कतिपय पदों से जो एक वाक्य बनता है उसमें पदैकवाक्यता होती है और कतिपय वाक्यों से जो एक महावाक्य बनता है उसमें वाक्यैकवाक्यता होती है। वायकवाक्यता हो जाने पर वाक्यभेद दोष नहीं होता, क्योंकि अबान्तर वाक्यों से विभिन्न बोध उत्पन्न होने पर भी महावाक्य से एक ही ऐसे बोध का उदय होता है जिसमें एक ही मुख्य विशेष्यता होती है । प्रकृतमें उक्तवाक्यके अवान्तर वाक्योंसे विभिन्न बोध उत्पन्न होने के अनन्तर महाबाश्य से 'निक विज्ञानात्मक आनन्द ब्रह्म से अभिन्न है' ऐसा बोध मान लेने पर वाक्यैकवाक्यता सम्पन्न हो जानेसे वाक्यभेद दोष नहीं कहा जा सकता । ४ ट्रष्टव्य अमरकोश ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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