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________________ स्था० का टीका व हिं० वि० (स्या०) यद्वा नित्यं सुखं बोधयित्वा तत्र ब्रह्माभेदो विधिनैव बोध्यते; न च वाक्यभेदः, वाक्यैकवाक्यस्यात् । रूप यशजन्य स्वर्गविशेष की सिद्धि होती है, उसी प्रकार धर्मजन्य सुख से भिन्न नित्य सुम्न की सिद्धि न होने पर भी 'आनन्द ब्रह्म' इस श्रुति भाग से सुखत्व से उपलक्षित सुखविशेष में ब्रह्म के अभेद का बोध हो सकता है और उस के बाद नित्य ब्रह्म के अमे. वरूप हेतु से सुख में निन्यता की सिद्धि हो सकती है। अतः उक्त श्रुति द्वारा मोक्ष में बामस्वरूप नित्यसुख के अस्तित्व को प्रमाणित करने में कोई बाधा नहीं है। इसके विरुद्ध यदि यह तर्क किया जाय कि अब तक नित्यसुख की सिद्धि नहीं हो जाती तब तक सुग्नत्व से उपलक्षित सुचविशेष के रूपमें भी जन्य सुख ही समझा जायगा अस स्वर्ग में यशजन्यस्वाभाष निश्चय उपों में यज्ञ जन्यत्व के निश्चय होने का रहस्य यह है कि परस्सर विरोधी भाव और अभाव की बुद्धियों में जो प्रतिवध्यप्रतिबन्धकमाव माना जाता है उसमें धमिविशेष का अन्तर्भाव नहीं होता अर्थात् अमुघा यमि अमुक की बुद्धि के प्रति अमुस व्यक्ति में अमुक विरोधी का निश्चय प्रतिबन्धक है, इस प्रकार का प्रतिबध्यतिबन्धकभाव नहीं माना जाता, क्योंकि किसी एक रूप से भासमान जिस व्यक्ति में किसी धर्म का ज्ञान होता है, अन्य रूप से भासमान उसो व्यक्ति में उस धर्म के विरोधी का भी ज्ञान उसी समय होता है, जैसे 'द्रव्यं वनिमत्' इस प्रकार द्रव्यत्वरूप से भासमान हृदमें वछिका निश्रय रहते हुये ही 'हृदो न वहनिमान्' इस प्रकार ह्रदत्वेन भासमान हृदमें पहन्यभाव की बुद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए परसर विरोधी भाव और अभाव को बुद्धियों में जो प्रतिबध्य प्रतिबन्धकमाघ स्वीकार्य हो सकता है उसके दो ही प्रकार है । जैसे तद्धर्मसामानाधिकरण्येन ताप्रकारक बुद्धि मैं तद्वविच्छेदेन तदभावप्रकार निश्चय प्रतिबन्ध है और तधर्मावच्छेदेन तरकारकाद्धि में तद्धर्मविशिष्ट में तदभावप्रकारक निश्चय प्रतिबन्धक है, चाहे यह निश्चय तद्धर्मसाम.माधि ण्येन हो या चाहे तशविच्छेदन हो । गास्नानादि जन्य स्वर्ग में यागमन्यवाभाव होने पर भी उरा में। का निश्चय स्वगत्वावच्छे देन नहीं हो सकता, क्योंकि स्वर्गवावच्छेदेन याग जन्यत्वाभाव के निश्चय का अर्थ होगा कि कोई भी स्वर्ग यज्ञजन्य हो ही नहीं सकता, और यह निश्चय कभी हो नहीं सकता, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अधिकार पूर्वक यह निर्णय कैसे दे सके कि कोई स्वर्ग कभी यज्ञ से होता ही नहीं, फलतः शात स्वर्ग में यागजन्यत्वाभाव रहने पर भी स्वर्गत्वावच्छेदेन उस का निश्चय न हो सकने से स्वर्गत्वसामानाधिकरण्येनैव उसका निश्चय होगा अतः उस निश्चय के रहते भी ज्ञान स्वर्ग में स्वर्गत्वसामानाधिकरण्येन यागजन्यत्व का निश्चय होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । प्रतिवश्वप्रतिबन्धकमाव की यह दृधि एकदेशीय नहीं है, क्योंकि रघुनाथ ताकि शिरोमणी ने सामान्यलक्षणा प्रकरण को दीधिति में धूम में बहिन्यभिचार संशयकी उपपत्ति करते हुअ इसी दृष्टि को स्वीकार किया है। गास्नानादिजन्यस्वर्ग में अागजन्यत्वका निश्चय यद्यपि भार है तथापि परिणाम सुखद होनेसे यह उसी प्रकार प्रशस्य है जैसे मणि को पास करने वाला मणि प्रभा में मणि का भ्रमात्मक निश्चय । 'स्वर्गकामो मजेत.' से अभ्रान्त को बध न हो सकेगा. यह शंका उचित नहीं कही जा सकती, क्योंकि वज्ञ आदि के अनुष्ठान में संसारी पुरुषों की ही प्रवृत्त होती है अतः उनमें भ्रम होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। जिस में भ्रम की सम्भावना नहीं हो सकतो मे आलाज्ञानी को यदि उत्ताबाक्य से चोध न हो तो कोई हानि नहीं है क्योंकि उसे यश आदि के अनुष्ठान में प्रवृत्त होने की आवश्यकता नहीं हैं ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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