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शा० था. समुन्वय न च ' नित्य विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति श्रुतिरेवात्र मानम्,
न च नित्यसुखे सिद्धे ब्रह्माभेदबोधनं, तद्वोधने च नित्यमुखसिद्धरिति परस्पराश्रय इति वाच्यम्, स्वर्गत्वमुपलक्षणीकृत्य स्वर्गविशेधे यागकारणताबोधवत् मुखत्वमुपलक्षणीकृत्य सुखविशेषे ब्रह्माभेदोपपत्तेः। कार्यकारणभाव की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः मोक्षमें धर्मजन्य सुखविशेष मत हो, किन्तु इन समस्त सुखों से विलक्षण सुख मानने में कोई बाधा नहीं है।"
तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जितने प्रकार के सुख प्रमाणसिद्ध है वे सभी अपनी विशेष कारण सामग्री से उत्पन्न होते हैं, और मोक्ष में वह विशेष कारणसामग्री नहीं होती, अतः मोक्ष में सुख की कल्पना नहीं की जा सकती। यह कल्पना उस समय की जा सकती थी अब मोक्ष में अन्य सभी सुखों से विलक्षण सुस्त्र का होना फिसी प्रमाण से सिस् होता, किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
इस पर यह कहा जा सकता है कि "नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' यह पक श्रुतिवचन है, इसका अर्थ है--ब्रह्म निन्थ भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालो में किसी भी काल में बाधित न होने वाला, विज्ञान -अपरोक्षशान स्वरूप स्वप्रकाश और आनन्दसुखस्वरूप है। इस श्रुति से ब्रह्मस्वरूप निन्यसुख सिद्ध है, । यह सुख जोव को बन्धनाषस्था में न प्राप्त हो कर मोक्षावस्था में ही प्राप्त होता है, अतः उक्त श्रुतिरूप प्रमाण से मोशमें सुख का अस्तित्व निर्विवाद सिद्ध है। ____यदि उक्त प्रमाण के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि "अनित्य सुख में निस्य ब्रह्म के अमेव का बोध सम्भव न होने से नित्य सुख में नित्यब्रह्म के अमेवयोध के लिये नित्यसुख की सिद्धि अपेक्षित है, और नित्य सुख का अन्य कोई साधक न होने से उसकी सिद्धि के लिये मुख में नियब्रह्म के अभेद का बोध अपेक्षित है, इस में परस्पराश्रय दोष हुआ। इसके कारण ब्रह्मस्वरूप नित्यम न की सिद्धि सम्भव न होने से उक्त श्रुति से मोक्ष में सुख के मस्तित्व को प्रमाणित करना असम्भव है"
तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार गङ्गास्नान आदि अन्य साधनों से स. म्पन्न होने वाले स्वर्ग से भिन्न स्वर्ग की सिद्धि न रहने पर भी 'स्वर्गकामो यजेत'स्वर्ग का इच्छुक व्यक्ति या से स्वर्ग का अर्जन करे' इस श्रुति पाक्य से 'स्वर्गत्व से उपलक्षित स्वर्गविशेष के प्रति यक्षकी कारपाता का निश्चय होता है और उसके फलस्व.
१ अष्टन्य तैत्तिरीय आरण्यक ।
१ 'स्वर्गव से उपलक्षित वर्गविशेष के प्रति यज्ञ की कारणता का निश्चय' इस का अर्थ है स्वर्गरमखामामाधिकरण्येन अन्यसाधन (गङ्गास्नानादि) जन्य स्वर्ग में ही यागजन्यत्वका निश्चय । अन्यसाधनजन्य स्वर्ग में याग जम्यत्व का अभाव होने पर भी अतिरिक्त स्वर्ग की सम्भावना से, स्वर्गस्वावच्छेदेन यागअन्यत्वाभावका निश्चय न हो सकने के कारण, उस अन्यसाधनजन्य स्वर्ग में उक्त निश्चय के होने में कोई बाधा नहीं होती 'स्वर्गकामो यजेता यह वाक्य उक्तनिश्चय को उत्पन्न कर ही स्वर्गकाम पुरुष को यज्ञ के अनुष्ठान में प्रवृत्त करता है और यह ब्र अनुष्ठाम होने पर उस से अतिरिका स्वर्ग की प्राप्ति होती है, ' के उससे अन्यसाधनजन्य स्वर्ग की प्राप्ति महाँ हो प्रस्तो।
चाल