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________________ या क० टीका व हिं० वि० (स्या०) अत्र कश्चिदाइ-- ननु र अन्यम्' इन बिगिरिशि, सिद्धौ तु सुखे न मानमस्ति, सुखत्यावच्छेदेन धर्मजन्यत्वावधारणात् । न च विजातीयादृष्टानां विजातीयसूखहेतुत्वाद, तत्तत्कर्मणामेवादृष्टरूपव्यापारसम्बन्धेन तदेतुत्वाद वा सामान्यतो हेतुस्वे मानाभाव इति वाच्यम्, तथापि विशेषसामग्रीविरहेण मोक्षसुखानुत्पत्तेः । (मोक्ष में सुख नहीं है-पूर्वपक्ष) सिद्धिसुख के विषयमें किसी का यह कहना है कि 'स्वर्ग में सुख होता है इस विषय में तो मतमेद नहीं है, पर 'मोक्ष में भी सुख होता है' इस बात में कोई प्रमाण न होने से मोक्षसुख का अस्तित्व अमान्य है। इस पक्ष का कहना है कि मोशसुख केवल इसीलिये अमान्य नहीं है कि उस में कोई प्रमाण नहीं हैं, अपितु उस के विरुद्ध प्रमाण भी उपलब्ध हैं, जैसे-'मोक्ष मुखमय या सुखरूप नहीं है क्योंकि घर धर्मजन्य नहीं है, यह अनुमान । यदि यह शङ्का को जाय कि 'मोक्ष के धर्मअन्य न होनेपर भी उसे सुखमय या सुखरूप मानने में कोई आपत्ति नहीं है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुख और धर्म में 'सुस्त्रमात्र के प्रति धर्म कारण होता है. ऐसा कार्यकारणभाष है, अतः जो धर्म के विना उत्पन्न होता है उसे सुखमय या सुखरुप नहीं माना जा सकता । यदि यह कहा जाय कि-'सभी सुख एक जाति के नहीं होते किन्तु विभिन्न जाति के होते हैं, अतः सुख के प्रति धर्म कारण होता है'-केवल इस कार्यकारणभाव से काम न चल सकने के कारण उन के साथ ही यह कार्यकारणभाव भी मानना होगा कि विजातीय सुखों में विजातीयधर्मात्मक 'अदृष्ट कारण है अथवा धर्मात्मक अरष्टको उत्पन्न करने वाले विभिन्न कर्म ही धर्माष्टरूप 'व्यापारात्मकसम्बन्ध से कारण हैं, तो फिर जब सुखविशेष के प्रति धर्मविशेष या कर्मविशेष को कारण मानना अर्थात विशेष रूप से कार्यकारण भाव मानना आवश्यक ही है तब 'सुखके प्रति धर्म कारण होता है' इस सामान्य रूप से १ अहट-शंक.कार नैयाधिकादि के मत से यह अदृष्ट आत्मा का एक विशेषगुण है। इस के दो भेद हैं, धर्म और अधर्म । शास्त्रविहित कों से धर्म और शास्त्रनिषिद्ध धर्मों से अधर्म की उत्पत्ति होती हैं । धर्म को पुण्य तथा अधर्म को पाप कहा जाता है । जैनमतानुसार अदृष्ट यह पौद्गलिक शुभाशुभ कर्मस्वरूप है, जो आत्माके साथ क्षीरनीरवत् संबद्ध होता है। २ व्यापारात्मकसम्बन्ध-व्यापार का लक्षण है 'वज्जन्यावे सति तज्जन्यजनकत्म' । इस के अनुसार जो जिससे उत्पन्न हो तथा उसे उत्पन्न होनेवाले कार्य का कारण हो. वह उसका व्यापार कहा जाता है-जैसे सत्कर्म को शाम में सुख का कारण कहा है, किन्तु सत्कर्म करते ही सुख की प्राप्ति नहीं होती, अपितु कालान्तरमें होती है । जब सुख्न की प्राप्ति होती है तब सत्कर्म स्वयं विद्यमान नहीं रहते; अतः यह मानना आवश्यक होता है कि सत्कर्म स्वयं रहकर सुख का उत्पादन नहीं करते । किन्तु दे धर्म-पुण्य को उत्पन्न कर देते हैं और वह पुण्य ही कालान्तर में सुग्न को उत्पन्न करता है, इस प्रकार पूर्वकृत साकर्म को चलान्तरभावी सुख के साथ ओड़ने का कार्य इस धर्म से ही सम्पन्न होता है। अतः इस धर्म को व्यापारात्मक सम्बन्ध मान कर इस सम्धके द्वारा ही सत्कर्म को सुन का कारण माना जाता है। .
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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