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शास्वधातासमु अष-स्तबक १ छो० ५० अबरुदमभेदेनाऽविरोधात् । न चाऽर्धाधूनेण्यषयविनीन्दियसन्निकर्पसरवे परिमाणादिग्रहप्रसा, पटवान, तहमास्तत्वादिजासिंग्रहे तु पायदवयषाऽयसोदेन सन्निकर्षस्प हेतुत्वात् । न च 'पाणौ शरीरं सकम्प निष्कर्म च चरणे' इति प्रतीतेः साम्पस्यनिकम्पत्वाभ्यां भेदः, तत्र पाणावेव फम्पग्गी फागन् । 'पाणी शरीर पलति' इति प्रत्य पस्य परम्परासम्वन्धेन पाणिप्तिकम्पावगाहित्वात् । न च कम्पाभावधीरेव परम्परास. म्पन्धेन चरणनिष्ठकम्पाभावमवमानतामिति-वाभ्यं, पाणिकर्मणव प्रत्ययापपचाबतिरिकारीरकर्म कल्पनायां गौरवात् । न चैवं कर्मणम्नुटिमात्रगतत्वापत्तिा, सच्छिदेनोपलभ्यमानकर्मवन्ति पारीगदी कर्मामावोपालम्मप्रसङ्गात् । एतेन 'शरीर एवास्तु क्रिया, नानावयत्र तत्कल्पने गौरयाद्य पालम्, पाग्यादौ कर्मामायोपलम्मापतेः । न च परम्परससम्बन्धस्य दोपत्वं, चरणादावपि तदनापत्ते, दोपत्वकल्पने गौरवाच्च।" इस्पाकायामाइ मेरे 'सददकम्' इति... ..
तो यह कामा ठीक नहीं, कोकि जिस मा में घट पक्रयसिस स मत मैंभीचा प्रकमांग में थाखला और अन्यभाग में समस्या हो सकता । ममेर से पकपशि में परमारविरोधी धर्मों का सामस्थ मानने में काम नही हो सकती। यदि यह आपत्ति दी आप कि 'यदि मषयषों से भिन्न भषयची माना जायचा तो माघे भाग में के घटादिमवाधी के साथ इन्द्रियसम्निकर्ष होने पर भी उसके परिमाण का प्रत्यक्ष होने लगेगा'-तो इस भापति को शिरोधार्य किया जा सकता है कयोंकि आधे हुँके प्रबादि अवयत्री के परिमाण का 'या पक महान घर है इस रूप में प्रत्यक्ष होता हीही सांकृत अवस्था में यह प्रत्यक्ष अवश्य महों होता कि 'घर एक हाथ सन्या
या दो हाथ लम्बा है तो वह तो इस लिये महा होता है कि इस प्रकार के प्रत्यक्ष लिये अव्य के सम्पूर्णभाग में इन्द्रियसन्निकर्म अपेक्षित होता है जो द्रव्य की अर्धाकृत अवस्था में सम्भव नहीं है।
सम्पत्य निष्कम्पत्व के विरोध की दोका] अदि मा कहा जाय Eि-"नाथ में भारीर सकम्प है और पैर में निकम्प इस प्रतीति से शरीर में कम्प और कम्पाऽभाष सिद्ध है। शरीर को पकव्यक्तिकप मानने पर उस में एक ही समय कम्प और कम्गाऽभाव न विरोधी धर्मा का समावेश न हो सकेगा, अतः शरीर को करचरणमादि अवययों का समूहरूप मान कर करात्मक परीर में कम्प और चरणातक शरीर में काराभाष के द्वारा शरीर की लकम्पता और निकापता की उपपत्ति आपपर है"ता या ठोक महो है, क्योंकि पाणि में कम होने के समय पाणि में ही क्रम्प होता है शरीर में कम्प होना ही नहीं, अतः शरीर में कम्प और कम्पामाय का सामग्रस्य स्थापित करने का कोई प्रसझनी मानी है। पाणि में कम्प के समय कारीर को निकम्प मानने पर हाथ में शरीर साम्पस प्रीति की अनुपपत्ति भी नही होगी, फोकि कम्प के श्राश्रय पाणि में शरीर समवेत होने से स्वामयसमवेतस्वका परस्परासम्बन्ध से शरीर में पाणिगत फम्प की प्रतीति हो सकती है।