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________________ स्थाom theref. पि. [कम्प और फम्पाभाव के विरोध की शंका और समाधान] पदि या कहा जाय कि-"पाणी शरीर सकम्पम्' अथवा 'पाणी शरीर कम्प' इस प्रतीति को शरीर में परम्परा-स्थाश्रमसमषेसायसम्बन्ध से पाणिगत कम्पका मादक मान कर पाणि में कम्प दिमायी पेने के समय केवल पाणि को ही कम्पयुक्त और शरीर को एकमात्र विष्कम्र हो भी माना जा सकता कयोंकि ऐसा मानने पर यह भी कर सकते है कि 'परणे शहरो. निकम्पम् मधया 'माणे कारो म कम्यते' पद प्रतीति शारीर में परम्परा-स्वापसमवसत्वसम्बन्ध से चरप्पमिण्ट कम्पामाष को ही महण करनी कि शारीर में विद्यमान अतिरिक्त फम्पाभाव को प्रहपा करती है, भता पानि में कम्प और चरण में कम्पामाष विखायी देने के समय परण ही निकम्प होता है, Arशिकम्पनहीं होता, बातो हुम्तभाग में कम्प्यक्त गीत। शतः हम पोनों पक्षों में कोई विनिमममा न होने से शरीर को साम्य भोर निकम्प धोनों ही मानना होगा । फलतः कम्प और कम्पामाव इन हो विषय धर्मों के पकष समावेश के परिहारार्थ शरीर को पक व्यकित न मान कर पणि, धरण, आदि अवयवों का समूह रुप मानना अनिवार्य हो जायगा | अतः अषयवों से भिन्म अययपी की सिद्धि नहीं हो सकती"- तो या कहना ठीक नहीं हो सकता, कोकि पाणि मैं कमा और चरण में सम्पाभाव दिखायी देने के समय पाणिभागयुक्त भारीर में जो कम्प की प्रतीति अथवा कम्पमानता का व्यवहार होता है इसकी नापत्ति अच परम्परासम्बध द्वारा पाणि के की कम्प से सम्भव सर पाणिकप से श्रोतारक्त शरीर में भी पृषक कम्र की कल्पना का कोई प्रयोजन न झोने से घर कामा गौरयग्रस्त होने के कारण त्याज्य है। कई के प्रमःगतत्व-शरीरसकर्मतः आपात और परिहार इस पर यदि यह कहा जाय कि "पाणि पि केही कर्म से शरीर में कर्म की प्रतीति और सकर्मता के एपबहार को उपपत्ति कर यदि शर्म को कमही हो माना कापमा, तप तो पाग मादि को भी कर्महीन मानना ही उचित होगा, कौकि उनमें कर्म को प्रनीति मार सकर्मना के व्यवहार की उपल पम्पासम्पन्ध्र द्वारा उनके अचमी के कर्म से ही की जा सकती है. अन्नतः कम पाणि आदि में भी सिय न होकर केवल रिन्प्रसरेणुमात्र में ही सिौगा, और उसका फल यह होगा कि यतः प्रस रेणु दातीर का साक्षात् भषयय नहीं होता अतः उसके कर्म का शरीर के साथ स्वाश्रय समषेतस्यक परपसम्म नबनसकने से शरीर में जाने वाली कर्म की प्रतीति मौर सकर्मला के व्यवहार के अनुरोध से शरीर में कर्म उत्पत्ति मानना अनिवार्य हो जायगा"-तो यह कहना ठीक नहीं हो सकता, कोकि कर्म की कपल बसरेणु में मानने पर उस के बारा जसे शरीर में फर्म की प्रतीसि मादिनी उपपत्ति न हो सकने से शारीर में कम की उत्पत्ति मामना भाग्यश्यक होगा, उसी प्रकार सरेणु के कम से पाणि आदि में भी कर्म की प्रमाति की उपपान न हो सकने से पाणि आदि में भी कर्म की उत्पसि मामना आवश्यक होगा । फिर आणि धादि अषयष और सभी में पर्म के सर की कल्पना में गौग्य रोगा, खतः कम की मेषल पसरेगुमान में न मान कर पाणि भावि में मानना और पाणि भाविकर्म से है। शरीर में कर्म की प्रतीसिका समर्थन कर शरीर को कर्महीन मानना ही युक्तिसंगत है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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