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________________ १५६ शास्त्रार्था समुच्चय- स्तबक १०५० 'केवल शरीर में कम्य मानने से लागव की भावांका इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का यह कहना कि जिस समय पाणि मावि मवयवों में अथवा उनसे युक्त शरीर में किया दिखाई देती है उस समय केवल शरीर में ही किया की उत्पत्ति मानना उचित है न कि पाणि आदि षयों में, क्योंकि शरीर पक है. मतः एक समय में उस में क्रिया भी एक ही होगी किन्तु पाणि आदि अवयव अनेक हैं अतः उन में क्रिया भी अनेक होगी, अनेकों में एक किंवा की अ महीं होती, अतः शरीर में क्रिया मानने की अपेक्षा पाणि आदि अपनों में किया सामने में गौरव है। इस प्रसङ्ग में यह शङ्का करना कि केवल शरीर में किया मानने पर पाणि आदि में किया की प्रमीति गीर सक्रियता के व्यवहार की अनुपपत्ति होगी'- उचित म है क्योंकि शरीरक्रिया का पाणि आदि अवयवों के साथ स्वाश्रयसमवायित्वरूप परम्परा सम्बन्ध होने से उत्तसम्बन्ध द्वारा शरीर की किया से ही पाणि आदि में किया की प्रतीति आदि होने में कोई बाधा नहीं हो सकतो" - [केवल शरीर में करप मानने पर अवयय में निष्क्रियत्व की भाति ] किन्तु इस रीति से केवल शरीर को ही सक्रिय कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि इस पक्ष में यद्यपि शरीर के केवल सक्रिय होने से उसमें सक्रियत्व और मिष्क्रियत्व इन दो विदव धर्मो के समावेश की प्रसक्ति न होने से अवयवातिरिक अवयय की सिद्धि में कोई बाधा नहीं होती, फिर भी यह पक्ष युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि रगान को ही सक्रिय और पाणि आदि अवयव को निष्क्रिय मानने पर पाणि भवि में सक्रिय का वर्णन न होकर निष्क्रिय के ही दर्शन की आपति होगी. क्योंकि पाणि भादि में शरीरक्रिया का परम्परासम्बन्ध होगा और निष्क्रियम्बका साक्षात्सम्बन्ध होगा, अतः परम्परा से सम्बदयस्तु के दर्शन की अपेक्षा साक्षात् सम्पद्रवस्तु का ही दर्शन युक्तिसंगत हो सकता है यदि इस आपति के परिवारार्थ पाणि आदि के साथ शारीरकिया के परम्यगसम्ब को पाणि आदि में निष्क्रियत्य के दर्शन का प्रतिबन्धक माना जाय तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर जिस समय केवल पाणि में क्रिया दिखायी देती है, चरण में नहीं दित्रात्री देतो, उस समय चरण में जो निष्क्रियस्य का दर्शन होता है वह शरीरकिया के परम्परासम्बन्ध को निष्क्रियापदर्शन का प्रतिमन्धक मानने पर न हो सकेगा. क्योंकि भरण की निष्क्रियता के समय भी शरीरक्रिया का उस परम्परासम्बन्ध चरण में विद्यमानता है । बात तो यह है कि केवल शरीर को दी सक्रिय और पाणि भावि अवयवों को निष्क्रिय मानने पर पाणि में सक्रियत्व के दर्शन के समय भी सक्रियत्व का दर्शन न होकर निष्क्रियस्थ के ही दर्शन को आपति का परिहार हो ही नहीं सकता, क्योंकि मिल स्थान में किसी वस्तु को साक्षात् सम्बन्ध और उसके विरोधी वस्तु का परका होता है उस स्थान में साक्षासम्बन्ध से विद्यमान नित्य के दर्शन के प्रति शरीरक्रिया के परम्परासम्बन्ध को प्रतिबन्धक मानने की कल्पना गौरवग्रस्त होने से स्वीकार्य नहीं हो सकती ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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