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स्पा०क० टीका डि.वि०
- म तस्यामेव सन्देहात् तवायें केन नेति चेत् ? ततःस्वरूपभावेन तदभावः कथं नु नेत् ॥७१॥
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म, 'तस्यामेव' -चैतन्योत्पत्तावेव किमियं प्राणप्रयोज्या उतात्मप्रयोक्या' हसि सन्देहात् । तथा चान्यथासित्वशङ्कया न तत्र कारणत्यनिश्चय इति भावः । भारमन्यप्य सन्देहः केन कामेन नयेन कारणत्वमिः स्यात् इति चेत् तस्य चै न्यस्य तस्वरूपमावेन आत्मधर्मानुविधायित्वेन तथा श्राम्यति चैतन्यधर्मानु विधायकत्वेन विशेषदर्शनादन्यथासिद्धस्यशङ्कानिरास इति भावः ।
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भरने पर भी तय की उत्पत्ति नहीं होतो मोर जीवित देह में वेतको उत्पत्ति होती है यह वस्तुस्थिति है. इसके अनुरोध से यह मानना आवश्यक है कि अंधित देश के अन्तःस्थित वायु में चैतस्यजनन स्वभाव है। अन्यथा यदि उसमें या भावन माना जाना तो जीवित देह में भी तय की उत्पत्ति न होगा, गलः कचैतस्योत्पत्ति की अभ्यश्रा अनुपपति श्री जीवितदेहान्तःस्थित वायु के वैतस्य ननस्यभाषता में प्रमाण है तो इस कथन में भी सत्याश नहीं है। इस कथन में सत्यांश नहीं है, यह बात भिम कारिका से समझाएँगे ॥७०॥
| मोनुविधान से
तात्पत्ति का प्रयोतक आता है ]
७९ व कारिका में प्राण में
तम्यजनकता का खण्डन कर उसके द्वारा उसमें
स्वभावता है साधनार्थ पूर्व कारिकोक्त प्रयास को मिल किया गया है'जीवित देश में मन्तःसंचारी वायु की प्राणजनन स्वभाव से युक्त मानना आव tयक है, या उसमें प्राणजनकता की उपति म दोगी' पूर्व कारिका की यह बात ठीक नहीं है. 'जीवित देठ में वैतभ्य की उत्पत्ति प्राणप्रयुक्त है वायु है'ऐसा सन्देह होने से वैवस्य के प्रति माण में अन्यथासिद्धत्व को शङ्का हो जाने के कारण मांग में चैतन्यजनकता ही असिद्ध है, मत्तः उसकी अन्यथाऽनुपपत्ति से प्राण में सभ्य जनमस्वभाव का साधन भाय है । यत्रि कहें कि - "इस प्रकार तो आत्मा में भी ज्ञानकारणंच का मिश्ाय न हो सकेगा, क्योंकि 'थात्मा में उक्त प्रकार का संदेह नहीं हो सकता' देखी घोषणा करने का आधारभूत कोई प्रमाण न होने से आत्मा के विषय में मी इस प्रकार का सन्देह दो ही सकता है कि 'जीवितदेद में चैतन्य की उत्पत्ति आत्म प्रयुक्त है अथवा प्राणयुक्त है ? प्राणमयुक्त होने पर वात्मा की अन्यासिद्धि ि घाव है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सैतन्य आत्मा के धर्म का विधान करता है, अर्थात् जिसमें शरमा के मध्य धर्म है, चैतस्य भी उसी में रहता है, जैसे स्टोक में वसा व्यवहार होता है कि 'मुझे यह ज्ञान है कि यह कार्य अनुचित है फिर भी मुझे यह कार्य करने की इच्छा है. मैं ऐसे कार्यों को अनुचित जानते हुये भी करता हूँ" इत्यादि । अतः आत्मा में चैतन्यात्मक धर्म के अनुविधायकत्वरूप विशेषधर्म का होने के कारण आत्मा में एक प्रकार का सन्देद न हो सकने से उसमें ज्ञान कारणत्व का निकाय होने में कोई बाधा नहीं हो सकती ।