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शास्त्रवाचमुच्चय-स्तक हो. मूकम्-वायुसामान्याप्तीसरेस्तत्वभावः स नेति चेत् !
मनापि न प्रमाण पचैतन्योल्पतिरेव चेत् ||७|| कुता ? इत्याइ-वायुसामान्यससिद्धेः-कोष्टान्तरसंचारिवायत्यं हि प्राणत्वं, ततः कोष्ठास्तम्संचारवायत्तयोस्तत्र सिद्धः कथं न प्राणत्वम् ! इति भावः । पर आइ-'स' चैतन्य जननस्वभावो न, अतो म प्राणः। अत्राह-दति चेत् ! 'अत्रापि-पैतन्य मननस्वभावस्वेऽपि 'वो':-युष्माकं, न प्रमाणम्. अप्रत्यक्षत्यानस्थ । चतन्योत्पत्तिरवावधानपदमाना प्रमाणमिति ने ७०॥ मन्तःसंचार करने पर पृतदेह में प्राण का सम्पन्न होने पर भी चैतन्य की उत्पत्ति न होने से अम्बयष्यभिचार होने के कारण प्राणादि के साथ पैतम्य के भग्ययव्यतिरेक का नियम को अमिय है, अतः प्राणादि में वैतम्यजनकना अप्रामाणिक है। यदि या कई कि-'नली मावि तारा मृतदेह में बतासंचारित वायु प्राण को पड़ी है, मतः उक्त भक्षयध्यमिवार नहीं है तो यह कथन ठीक नहीं है। यह कथन की ही मही यह बात गगली कारिका (७०) में विखलाएंगे ॥६॥
नलिकासंचारित वायु प्राण से भिन्न नहीं है] ५. बी कारिका में मृतदेह में मली द्वारा अन्तःसंचारित वायु को प्राणामक खिन कर प्राण में चैतम्य के अवयव्यभिचार का समर्थन किया गया है। कारिका का भय इस प्रकार है
'मृतदेह में नलीबार। अम्त संधारित वायु प्राणहा नही है, यह बात जो पूर्व कारिका में कही गयी है वह ठीक नहीं है, क्योंकि कोष्ट के भीतर संबाण करने वाले वायु को ही प्राग कसा आता है, तो फिर नही द्वारा सूतदेह के भीतर भरा गया घायु भी जब कोष्ठ के भीतर संपरण करता है और वायु भी है. सा उसे प्राण मानने में क्या पाधा है, हाँ यदि कोठ के भोतर संघरण म करता मघवा पांगु न होता, तब प्राण के उक्तलक्षण से संग्रहीत होने के कारण उसे प्राण करना उचित न होता; किन्तु अब वह प्राण है तब उसके रहते भी मृतपेट में बैतन्य की उत्पत्ति न होने से उसमें तम्य का भाप्रयव्यभिचार निर्विवाद है। यदि यह को कि
तर संचरण कोवाला पाय माण' का इतना लक्षण हो.. किन्तु कोष्ठ के भीतर संचरण करने वाला बतम्यजननस्वभाष से उपेस पायु प्राण है प्राण का यह लक्षण है, जो धासु नली द्वारा मृतदेह के भीतर भर दिया जाता है, बस कोष्ठ के भीतर संचारी होने पर भी बैतग्यजना के स्वभाष मे युक्त न होने के भरण प्राणमय नहोनी सका, अतः उसके द्वारा प्राण में तम्प के अन्ययम्पमिचार का समर्थन अनुचित'-तो या कहमा भी ठीक नहीं है, कोंकि नालो मारा पता के भीतर भरे गये वायु में बैतन्यमनस्वभाष नहीं है मौर. जीवित देव के भीतर समय करने वाले वायु में चैतन्यजनस्वभाष है' इस बात में कोई प्रमाण नहीं है, कारणवैशम्पानामस्वभाव स्वयं अप्रत्यक्ष है । यदि यह कई कि-"मुतरे में गली द्वारा मायु
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