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________________ स्या० ० टीका पह. वि. २७५ त्वात् । शक्तिविशेषस्यैव नियामकन्धे लेन रूपेणाऽन्यथासिद्धेश्च । एतेन 'ज्ञानमानसा नभ्युपगमे धर्मादीनामिव तस्यायोग्यस्वाय मानससाक्षात्कारप्रतिबन्धसत्वकल्पने गौरवम्' इति नव्यमतं निरस्तम् 'अयोग्पत्यस्य प्रतिबन्धकत्वेऽविश्रामात् स्वरूपायोग्यतयैव तवान् इति यौक्तिकाः । यत्त-अनुमित्यादी सांकर्यात प्रत्यक्षत्वं जगति स्याद्' इत्युक्तं-राथैव, शानमही होतो अपितु अपना विशेष शक्ति से इन्दियनाय इती है। यवि लौकिक विषय होने से घस्तु को पन्द्रियमाहा माना जायगा तो अतीन्द्रिय यस्तु में भी इन्द्रियप्रावस्य की मापति होगी, क्योंकि "वस्तु लौकिक होने से निगमाय हो भोर मलौकिक होने से इन्द्रियग्राहा न हो' इस बात में कोई युकि नहीं है। अतः लौकिकविषय को भी पतिपिशेष से जीन्द्रियगाना भान ना होगा और जल फिनिक्षेप को दिमाहात्य का नियामक माना जायगा नव उत्तासे इन्द्रियप्राहा को उत्पत्ति हो जाने से लौकिकधिघयत्व भन्यथासित हो जाने से इन्द्रियपात्यन्व का निधायक न हो सकेगा । फलित यह हुआ कि वियप्राबल्य का नियामक दौकिकधिषश्च नहीं है जिन्तु शक्तिविशेष है मौर वह शक्तिविशेष धान में महों , अतसोविकविषय होने पर भी नाम इन्द्रियप्राय नहीं हो सकना, अतः उसे स्वप्रकाश मानने में कोई बाधा नहीं है। ज्ञाग के मानसप्रत्यक्ष का मन्तव्य मयुक्त है] इस सम्बन्ध में नवीन विधामों का यह मन है कि-"शान को मान समस्या का विषय न मानकर यदि स्यसविविन माना जायगा तब उसे मामलामत्या के मयोग्य लिख करने के लिये विषयतासम्बन्ध से मानसनत्यक्ष के प्रति तादाम्यसम्बन्ध ले ज्ञान को ठीक उसी प्रकार प्रतिबन्ध मानना होगा सिस प्रकार धर्म (म) मादिको मानसमत्यक्ष के अयोग्य सिह करने के लिये उन्हें विषयतासम्पन्ध से मानसप्रत्यक्ष के प्रति तादात्म्य सम्बाध से प्रतिबन्धक माना जाना है, फलतः मान को स्वप्रकाश मानने पर उक्त प्रतिबन्धाता की कल्पना से गौरष हागा, अनः हाम को स्वप्रकाशन माम कर मानसप्रत्यक्ष का विषय मानना ही उचित है" किन्तु युक्तिवात्रियों की राष्ट से यह मत भसंगत है: स्योंकि वस्तु की प्रत्यक्षाऽयोग्यता प्रयास के प्रति उसकी प्रति पन्धकता के कारण नहीं होती, अपि तु उसको स्वरूपगत भयोग्यता के कारण होती है। प्रत्यक्षाव का जातिम्प न होना इस है] "ज्ञान को स्वप्रकाश मानने पर अनुमिति आदि जान भी स्वप्रकाश होगा, और जब षड स्वप्रकाश होगा तो घर वपने रूप के विषय में प्रत्यक्षात्मक होगा, भता मनुमिति आदि क्षानों में शामितियिषय के श में परोक्षय और अनुमिति स्वरूप के मंच में प्रत्यक्षात के समावेश होने से प्रत्यक्षरय में पोशल्य का सांकर्य होने के कारण प्रत्यक्षत्य आति न हो सकेगी, अतः शान का स्वप्रकाश मानना ठीक नहीं है ।"-किन्तु घर का भी मन नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षय कोइ जाति नहीं है, अपितुषहमालजम्यता का अनवच्छेदक तद्विषयकम्य रूप उपाधि है' यही मान्य है। अत: प्रत्यक्षरव में मातिन्वाभाव का आपायन एट होने से उस भप से मान की स्वयकाशता का त्याग
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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