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________________ २७४ शास्त्रवालिमुरुपय-मयक प्रो० ॥ __यदपि 'प्रत्यक्षाजनकस्य प्रत्यक्षाऽविषयत्वं स्याद' हत्युक्त नदपीश्वरादिप्रत्यक्षविपये गगनादौ व्यभिचारग्रस्तम् | लोफियपयत्येनेन्द्रियग्रामवाजाने न स्वप्रकाशत्वमा र्याप रिक्तमुक्त, शक्तिविशेषेणैवेन्द्रियग्राहात्यात, शौकिकापयत्वेनाइतवान्, तपस्यानीन्द्रिय आपाधठीक न होगा क्योंकि उस दशा में छा आदि में मानव न रहने से उनमें स्वविधयता न हो सकेगी, सब कि स्थघिधिन मानवानी को इन्छा गादि में भी स्ववियना मान्य है। इसके अतिरिम्स यह भी न ऊन सकता है कि स्वव्यवहारशनाव स्वषिषयता से मभिम्न है या भिम्भ ? यदि अभिन्न माना जायगा सो स्वविषयता से अभिम स्थव्यपवारशकता को ही स्वषिष्पना का नियामक मानने से भामाश्रय दोष हांगा । यदि इस दोष के परिहार्य व्यवहारातत्य मो म्पविषयता से भिन्न मामा जायगा नो भन्योन्याभय होगा, क्योंकि ज्ञान स्पषिपयक होने पर हो स्यग्यपहारशक्त हो सकेगा और स्वारशक होने पर ही मविषयक हो सकेगा। सम्योन्याय की पर आपत्ति प्रास्ट में इस प्रकार कही गयी है कि जो वस्तु जिस वस्तु के प्रति मनम्मासिस और लियतपूर्वषोंरूप में बात होती है उस वस्तु में उस वस्तु की सम्पादिका पाक्ति मानी जाती है अतः जाम में स्यव्यवहार की शक्ति भी उसी प्रकार झंग हो सकती है, फलतः म्यव्यवहार के प्रति स्वविषयक नान के कारण होने से ज्ञान में स्वविषय सियाहोने पर ही असमें स्वम्याहार के प्रनि अनन्ययालिनियनपूर्ववत्वका कारणता का कान होकर स्वयबहार शक्ति की सिसि हो सकेगी और उन शक्ति को स्वविषयकाय का नियामक मानने पर उक्त शक्ति की सिद्धि होने पर ही शान में स्यविषयकाय की सिधि हो सकेगी, वातः स्यव्यवहारशक्तत्व और विषयकाय घोनों के परस्पर सापेन होने से शम्योन्यालय सपए है। [प्रत्यक्षाजनक-प्रत्यक्षाविपन नियम का भङ्ग शान की स्थविषयता के विराय एक पात यह भी कही जाती है कि-"मो जिस प्रत्यक्ष का जनक नहीं होता बह जल प्रत्यक्ष का विषय नहीं होता, या नियम है। अतः कारन स्वारमकप्रत्यक्ष का जनक न होने से स्याम्मायक्ष का विषय नहीं हो सकना"-किन्तु पह यात भी ठीक नहीं है क्योकि गगन गावि पदार्थ ईश्वरीय प्रत्यक्ष का अनकम होने पर भी उसके विपय होते है अना उत्त नियम व्यभिचारग्रस्त होने से अमान्य है। फलतः जैसे गगन भावि पदार्थ ईश्वरीयप्रत्यक्ष का जनक न होने पर भी उसके विषय होते है वैसे ही जान स्थात्मक प्रत्यक्ष का जनक न होने पर भी स्वारमकप्रत्यक्ष का विषय से सकता है, यह मागने में कोई बाधा नहीं हो सकती। हिन्द्रियग्नत्व का नियामक लौकिकविषयत्व नहीं है ] 'यो विषय लौकिक होता है या इग्विय से गृहीत होता है, वान भी लौकिक शिय है, अतः यह इन्द्रिय से ही माघ दो मकता है. स्वप्रकाश नही हो सकता'यह कथन भी युक्तिशून्य है, क्योंकि कोई भी वस्तु लौकिकषिपय होने से इन्द्रिप्राहा
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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