SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्पा० क० टीका व क्रि० वि० 'अमेत्य ?' 'किस' इस चेत् वभाव तुमशक्यत्वेऽपि प्रत्याख्यातुमशऋत्वान् । चे गथा घटाभावे घटाभावविशेषणत्वम् । अनिर्वचनात् तदसिद्धिरिति चेन्न तस्याख्या यस्यत्वमेवविपयत्व' इति तत्र, आत्मन्यतिप्रसङ्गात् ज्ञानपददाने छापा पदार्थानामाश्रयद्धारेऽपि तस्या अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्विज्ञानन्यान्योन्याश्रयानेति विभावनीयम् । [ अनन्य पदार्थ विषय-विभव का मगन] भाव भिन्न 10 an अब गफ शेष रह जाता है वह यह कि शाम यदि स्वप्रकाश है तो हम और उसके संवेत्र में निची अभेद है, फिर साग अपने से अभिश्न संवेदन कर विषय कैसे हो सकता है क्योंकि विषय विमाघ भिम गवार्थों में ही हैकिन्तु इस ग्रह का अनायास दिया जा सकता है जैसे विशेष्य- विशेषण स्थामि स्थलों में ि * me dar† cá nær s Aux-lankama fare qua i ए होने पर भी शान के साबन्ध में से अभिभो मानने में कोई बाधक नहीं हो जैसे जाता है कि घटाभाव में घटाभाव पर्ने विशेषणता घटाभाव की ही पार्था घटाभाव अपने स्वभाव से हो अपना विशेषण चनता है उसी भी माना जा सकता है कि शाम की स्वविषया भी ज्ञान का म्यभाव है, अर्थात ज्ञान अपने स्वभाव से ही अपना विषय बनता है, इस स्वभाव का कोई न सका तथापि निखन न होने मात्र से इसे अस्वीकार नहीं किया जा सका पर्याक इसका प्रत्यास्थाम भी नहीं किया जा सकता और नियम विजय तक किसी वस्तु का प्रत्यास्थास महोब रुकमाया असंगत है । [स्वविषयस्त स्वभ्यवद्वाफ्तत्वरूप नहीं है ] ज्ञान को स्वयता के बारे में एक बात यह कही जाती है कि "ज्ञान की स्वि यता छात्र का स्वभाव नहीं है किन्तु ज्ञान में जो स्वयमपहारकना है यही उसकी स्वविषयता है | यह कि ज्ञान से भिन्न वस्तुयें सपने व्यवहार के सा इसमें शक नहीं वाली किन्तु भवने ज्ञान के द्वारा शत होती है, पर पान स्वयं ही व्यवहारका करने में शक्तता है सो ज्ञान में जो पस्य शहता है या उसकी विस्वाशना है किन्तु यह बात ठीक नहीं है। कि यदि स्वश्ववहारात काश्यता माना जायगा तो आत्मा में भी स्यधियता का पति होगा क्योंकि पप स्वयं स्वव्यवदारक होता है। इस दोष के के राजा कि वारशामत्व विषयता है तो यह भी शा.पा. ३५
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy