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शास्त्रार्त्तामु
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स्करोमि इति प्रानियामकस्पष्टताख्यमितायां च सम्बन्धविशेषेण विषयनिष्ठस्य प्रत्य क्षपतिबन्ध कज्ञानावरणापगमस्य शक्तिविशेषस्य वा नियामकत्वमिति न किञ्चिदनुपपन्नम् । के बिना ही लौकिकप्रत्यक्ष की विषमता होने से सामान्यतः लोककथा को भी सिन्निकर्ष से शिवस्य नहीं माना जा सकता। इस के अतिरिक्त यह भी कहा सकता है कि इन्डियनकर्ष से शिवम् मो लौकिकप्रत्यक्षविषयता यात्री को मान्य है वह शाम को स्वप्रकाश मानने वालों को ज्ञान में मान्य भी नहीं है, अतः उसकी अनुपपत्ति की शंका का कोई असर ही नहीं है।
[ स्पष्टतानामक विपयत साक्षात्कार नियामिका है ]
अब प्रश्न केवल यह रहा है कि जब ज्ञान स्वप्रकाश होगा तो वह साक्षा करोमि इस प्रकार के शाम का विषय कैसे होगा ? क्योंकि साक्षात्कार की विश्यता यिनिक वस्तु में ही होती है और मान को स्वप्रकाशता के पक्ष में यसन्निकर्ष के बिना ही गृहीत होता है"- किस्तु इसके उत्तर में यह कहना पनि है कि 'साक्षात्करोति' इस प्रकार के ज्ञान की विश्वतायिसन्निकर्ष से सम्पन्न होने बाली प्रत्यक्षविषयता के अधीन न होकर स्पष्टमानामक विलक्षण विध्यता के मधीन होती है और वह विषथता किसे नियम्य न होकर प्रत्यक्ष के प्रतिबन्धक ग्रामावरण के भाव से निस्य होली है।
कहने का आशय यह है कि संसार की समस्त पस्तु सनातन प्रत्यक्ष चैतन्यात्मक मात्मा से शानसम्बन्ध द्वारा देय सम्पृक्त होती है, किन्तु कर्मत्रोष जिसे कालाधरण कहा जाता है उस से चैतन्य आवृत होने से धन्तु का स्पष्ट प्रकाश नहीं हो पाता. किन्तु यह तब तक जब तक उस मामाकरण-कर्म की निवृत्ति नहीं होती जब वर्तक कारण का सम्मान होने पर शाभावरण कम की निवृत्ति होती है, तब वस्तु का स्पष्ट प्रकाश होने लगता है। शाभावरण की ग्रह निवृत्ति स्वभावतः चैतम्पगत होने पर भी एक विशेष सम्बन्ध से विषयनिष्ठ होकर उसे स्वछता प्रदान करती है। उस सम्बन्धविशेष को स्वप्रतियोग्यावरणावच्छेदकत्व नाम में कहा जा सकता है । 'स्व' का अर्थ है सानाधरण का अभाव उसका प्रतियोगी है आदरण उसका अवश्य विषयभूत वस्तु में यह है कि आत्मस्वरूप सनातन सहज बैतन्य भिन्न भिन्न विवस्त वस्तु रूप भवच्छेदकों से अच्छन हातावरण से सदा भावृत रहता है, और जब जिस विषय वस्तु से अम्नि चैतन्य के शातावरण का अभाव होता है तब मान वक्त सम्बन्ध से विषयगत होकर उसे स्पष्टता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि शान में विषय को स्पष्ट करने की एक विशेष शति होती है यह शक्ति जिस बान में रहती है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। इस शक्ति से ही प्रत्यक्षज्ञान में भारित होने वाले विषय में स्पा आती है। इस प्रकार इस स्पष्टता नामक विश्यता इद्रिसन्निकर्ष से नियमन न होने के कारण इसे इन्द्रियमन बिना भी ज्ञान में स्वीकार किया जा सकता है, मत्रः मान की स्वप्रकाशता का पक्ष उक्त शंका से धूमिल नहीं किया जा सकता ।
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