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________________ स्था का ष . . २७१ ... ... ... .. .. .. . . .. .. .. .morrn.rr. __ यच्चोक्तम् – 'झानस्य पूर्वमनुपस्थितत्वात् कथं प्रभारस्वम्' इति-तन्न, सस्पात्म पित्तिवेधत्वान्, 'अ सुशी' इत्यस्यापि 'मुंख साक्षात्करोमि' इत्याकारकत्यात, अनभ्यासादिदोषेण सयाऽनमिहापात् । यदर्षि 'प्रत्यक्षविषयातायामिन्द्रिय सन्निकर्प पत्र नियामक' इत्युक्त-तदए न, अली किफप्रत्यक्षविषयतायां व्यभिचारात् । न च लौकिकत्वं त्रिषयताविशेषाग, दोषविशेषप्रभवप्रत्यक्षविषयतायो व्यभिचारात्. बाने पराभिमतलौकिकविषयमाऽभावस्पेहत्वाच । साशावीकार करने में भी कोई गौरव मही होगा कि ज्ञान में दो शकिया होती है, एक स्वय मार को प्रकासितरने पालो गरी बिनय कशित करने वाली, मतः प्रत्येक शाम अपनी इन स्वाभाषिक शक्तियों से अपने विषय और अपने स्वरूप पोनों का प्राहक हो सकता। __ झाम की स्वप्रकाशना के पक्ष में यह शका की जा सकती है कि--"शाम अपनी उत्पति से पूर्व तो खान नहीं रहना, नया ज्ञाता में प्रकारका से 'अई घटानामि' इस प्रकार के ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है क्योंकि साप्रकारक ज्ञान के प्रति तविषयक धान कारण होता है-" किन्तु यह शंका ति नहीं है, क्योंकि शाम प्रारमवित्तिषेध होता है प्रगमे स्वरूपमाहासामग्री से ही प्रकारविधया भी पहीत होता है। माशाय यह है कि--'तत्यकारक ज्ञान में तहिषयकवान कारण होता है। यह नियमझानप्रकारक ज्ञान के लिये लागु नहीं होता। शान के समान सुख भी आत्मबिसिपेय होता है, इसी लिये मुख का ब्रान केवल 'अहं सुखी' पस प्रकार न होकर 'अई सुख साक्षास्करोमि' इस प्रकार ही होता है, इस रूप में सुखसान का ममिलाप का न होना तो उस प्रकार के मिलाप के अभ्यास न होने का फल है। प्रत्यक्षाबंघयता में इन्द्रियसीनकर्षनियामकरव का खंडन ज्ञान की स्वरकाशना के पक्ष में यह भी शंका की जाती है कि-'प्रत्येक स्वप्रकाश होने से अपमे स्वरूप के बारे में प्रभ्याक्षात्मक होता है अतः सान में जो स्थ विषमता होती है पर प्रग्याविषयताकपदी होती है, तो फिर यह कैसे उत्पन्नो हो सकती है ! क्योकि प्रत्यक्षविषयता का नियामक तो इखि यसमिकर्ष होता हो झानोपास के पूर्व बान के साथ सम्भव नहीं है'-किन्तु इस शंका का सर बहुत सरल है और पाया है कि अलौकिकपत्यक्ष को विषयता इन्द्रियसग्निकर्ष के बिना ही सम्पन्न होती है अतः इन्द्रियस्मिकर्ष को सामान्यरूप से सम्पूर्ण प्रत्यक्षविषयता का नियामक मही मामा जा सकता 1- लौकिकात्याविषयता इन्द्रियमिक से हो नियम्य होती है मता कान में कौकिक प्रत्यक्षविषयता मैली वषिषयतारूप में प्रकाशता नहीं मामी जा सकसी -यहा भी चित्र हो कहा मा सकती, क्योंकि पित्त दोष सेषित नेत्रवाके मनुष्य को शंख में रीतरूप का लौकिक प्रत्यक्ष होता है-सीलिये यह प्रम्यक्ष 'शले पोर्स साक्षाकरोमि' स प्रकार साक्षात्कार लोकिकपत्यक्ष के रूप में दी गृहीत होता है । फलतया वोपविशेष से क्षेत्र में घस होने वाले पीतरूप में इन्द्रियाग्निकर्ष
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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