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________________ २७० शास्त्रवासिमुदाय-सषक १ लो० ८४ न च ममापि स्वविषयकत्वनियामकहेतु कल्पने गौरवम्, आलोकस्य प्रत्यक्षे आलो कान्तरानपेक्षत्रवत् स्वभावत एव बानस्य स्वसंविदितत्वात, अस्तु वा स्परप्रकाशनशक्तिभेदस्तथापि न गौरवम्, फालमुखत्वाच । मानना होगा, अस। इस प्रतिबन्धककाना से होने घाले गोरख के कारण ज्ञान को मनो. वेध मानमा जधित नहीं है। इसने भतिरिक्त ज्ञान को मनोवेध मानने में यह भी दोष है कि घट के चाक्षुष शाहि ज्ञान का मानसप्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि घट का अनुप उत्पन्न होने पर भी घट के अन्य बाभुष का सामग्री नी बनी ही रहेगो, फिर उसके रहते ठसाक्षुष का मानसप्रत्यक्ष फैसे हो सकेगा ? क्योंकि वासाइन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष की सामग्री मानसप्रायक्ष को सामग्री की अपेक्षा बलवती होने से मानसप्रत्यक्ष की प्रतिबाधक होती है। उनके उत्तर में यदि य: करा ना कि- 'घट का वालपपरयक्ष होने पर बभु के साथ मन के संयोग का कारण का निवृान हो जाती है मनः नाभुः पातर की सामग्री न होने के कारण घटवानुष के मानस प्रत्यक्ष में बाधा नहीं हो सकसी.-" तो यह लोक नहीं सुगा, क्योंकि 'बदनानुष होने पर उसके कारपाभूत क्षु: मनासयोग की निति हो जाती है इसमें कोई प्रमाण नहीं है, परयुत घटचाक्षुष के ठीक दावी पटादिमाशुष की उत्पत्ति होनी मोहै, अतः उसके अनुगमन से घटनाक्षुष की बपति के समय बचमनःस योग का अस्तित्व मानना अनिवार्य ही है। ____ यदि घाइ कहा जाय कि-"घटवानुष होने पर उसके कारणभूस चक्षुमनासयोग की मिति तो हो हो जाता है, पयोकि अन्य असचाशुष का जन्म मानने को कोई मायायकसा न होने से उसके अस्तित्व का स्त्रीकार निरर्थक है, किन्तु जहाँ घटसाक्षुप के याद दी पसानिमानुष का जन्म होता है, यहाँ उसमे पूर्य नये अक्षुमनासयोग की उत्पति हो जातो है, ऐसा मानने पर घर चाक्षुप के बाद पटनानुष के छोने में किचित् विलम्ब अवश्य हो सकता है, पर यह विलम्ब उतना सूक्ष्म और सुध होता है जिसका अस्वो. कार केपल शपथ से ही हो सकता है जो प्रतिपादों को स्वीकार्य नहीं हो सकता"तो मह भी ठीक नहीं है, क्योंकि घरवाशुष के कारणीभूत क्षुमन:संयोग के माध की कापमा भौर पराविचाक्षुष के मनुरोध से नषेचनुमनासेयोग के माम को कक्षामा करने में अत्यंत गौरव होगा, अतः शान को मनोवेध न मान कर स्यप्रकाश मानना को अषित है। __[स्वप्रकाशज्ञानपक्ष में गौरव भापत्ति का परिहार साम की स्थप्रकाशता के विषय में यह आक्षेप किया जा सकता है कि-"प्रत्येक ज्ञान सपने स्वरूप को ही प्रवण करता है किन्तु अन्य झाम के स्वरूप को मही प्रक्षण करता, अतः शान में स्थप्राहकाव के लिए किसी नियामक हेतु की कलापमा मावश्यक होने से गौरवग्रस्त होने के कारण वाम की स्थप्रकाशता का पक्ष माहा नहीं हो सकता-" किन्तु इसके उत्तर में इतना ही फाइमा पर्याप्त होगा कि जैसे मालोक का प्रत्यक्ष अन्य भोलीक विमानो जाता उसी प्रकार मान का घेवन भो किसी अन्य। आदि मियापक हेतु के बिना ही उसके अपने सहा स्वभाव से ही सम्पन्न हो सकता है। मतः उक गौरव की को ससाना ही नहीं हो सकती। इसके अतिरिक यह
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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