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________________ ...... १५५ w r - -- - - स्था• टीका कि ___ न चैवं 'शानमुत्पन्नम्' इतिवत 'आत्मोत्पन्ना' पति घ्यवहार: स्पान आत्मत्वे. नोत्पावाप्रतियोगिल्चे तु 'कम्युग्रीचादिमानुत्पन्नः इस्पपि न स्याद् इति वाच्यम् । गुरुरूपस्यापि प्रकारवायवच्छेदकत्वषदुत्पादादिप्रतियोगितावच्छेद फत्त्वात् । अत एव नित्पानिपतामोदयसाग । ___ नन्वेषं 'परमाणुनित्यः' इति ध्यवहारोऽपि भ्रान्तः स्यात् , परमाणोः परमाणुभावेन नाशस्याप्य युपगमाव , अत पवाययत्र-विभागोतरं तयोत्पादप्रतिपादनात् । तदुतम्-- "घरविशिमिट्टीवश्य को उत्पत्ति का प्रतियोगी मानने पर घविशिष्टमिट्टोद्रव्य के अतिरिक्त कारणों को कल्पना में गौरव होगा"-पेसा कुतर्फ ठीक नहीं है, क्योंकि घटकारणों से ही विशिमिट्टीदष्य की उत्पत्ति हो जाने से अतिरिक्तकारण की कल्पना मनावश्यक है। इसीलिये झण हेतुमों से ही क्षणविशिष्ठ को भी सापति हो जाने से पेसे सभी कार्यों को समानरूप से विस्रसा-उत्पाव-अर्थात पुरुषप्रयत्न के बिना ही स्वाभाषिक उत्पाद सिम होता है। [जीव उत्पन्न हुमा' इस न्यवहार को आपत्ति का निराकरण] पेसा मत समझीर कि-"विशेषण की उत्पत्ति के समय यदि विशिष्ठ को भी उत्पाद होगी तो शान के साथ शामाश्रय आस्मा की भी उत्पत्ति होगी अता से शाम उत्तम यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार 'भारमा उत्पन्ना' यह भी व्यवहार होना चाहिये"फिनान की उत्पत्ति के साथ शानविशिष्ट भारमा की इरपरि होने पर भी आत्मा भास्मस्वरूप से वापत्ति का प्रतियोगी नहीं होता । मतः मात्मा को मामस्वरूप से उत्पत्ति प्रतियोगी के रूप में विषय करने वाले वात्मा वपन्नः' इस व्यवहार की भापति नहों हो सकती । या भी घोष नहीं है कि-"तय तो 'कम्युप्रीवादिमान जापानः' या मी व्यव दार न हो सकेगा, क्योंकि यह व्यवहार कम्युमोयाविमान में उत्पति की प्रतियोगिता को कम्युनीयादिमषरूप से विषय करतामीर कम्युनीवामित्व घटत्व की अपेक्षा गुरुधर्म होने से उत्पत्ति की प्रतियोगिता का अपच्छेरक हो नहीं सकता।" [गुरुधर्म को भी मवच्छेदक मान सकते है। कि 'कम्युनीयाविमहान् देश', 'अत्र देशे कम्नुग्रीवादिमान्' इत्यादि व्यपाहार के मनुरोध से जैसे कानुनीषाविमस्य को प्रकारता. विशेस्थता भादि का अपम्वक माना जाता है उसी प्रकार उसे 'कम्युनोविमान् उत्पन्न।' इस प्यार के अनुरोध से उत्पत्ति को प्रतियोगिता का भी धमछेदक माना जा सकता है। इसीलिये ज्ञानात्मकाय मोर भारमतव्य में अमेद होने पर भी पानं नित्यम्' 'आत्मा अनित्यः' इस प्रकार नित्यस्थ और अनित्यरथ के सांकर्य की भी गापति नहीं दी जा सकती, क्योंकि वोमों में द्रव्य मुखी रधि ने अभेद होने पर भी नस्प मोर मामत्व रूप से मेद माम कर तथा शान स्वरूप से केवल अमित्यता और भात्मस्वरूप से केवल निस्यसा मान कर उक्त लोकापति का निहार हो सकता है। बागबरूप से निस्यता न मानने का कारण यही है कि शाम जामाबरूप से उत्पन यं नष्ट होता है और यह नियम है कि 'ओ जिस से उत्पग्म पा न होता है पर उस कप से नित्य नहीं होता।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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