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________________ CAAA शास्त्रपार्तासमुच्चय-स्तमा र लो० ७५ . इस प्रसङ्ग में यह भी जातव्य है कि उस्पति का निरूपण केवल प्रतियोगी से महों सम्पन्न हो जाता, उसके लिये अनुयोगी को भी अपेक्षा होती है. क्योंकि वस्पति किसी वस्तु की होती है और किसी में होनी है. ह. ' पनि तब मैं होती है, अस्पति का यह आधार ही उसका अनुयोगी होता है। इस प्रकार उत्पत्ति की पर्धा में बम्पत्ति, उत्पद्यमान घर, इत्पत्ति का माधार मृद्रव्य ये सीन वस्तुयें उपस्पित होती है, ये तीनों वश्यरूप में तो परमार में अमिान है किन्तु उत्पतिव, घरस्थ, बौर मृस्वरूप से मे परस्पर में भिन्न भी हैं, मतः पद पररषरूप से मारनी उत्पति का प्रतियोगी, मृद मुखरूप से अपने में सम्पन्न होने वाली उत्पति का अनुयोगी और उत्पत्ति उत्पमिन्धरूप से घट और मस्वरूप प्रतियोगी पचे अनुयोगी से निरूप्य होती है। स्पत्ति के साथ घट और मृत् का यह सम्बन्ध भूवि धट उत्पन्नः' इस प्रतीति से सिखोला है । 'मुदि पद उमः' इस वाक्य में मृ शाम के उत्तर शुथमाण सप्तमी का मर्थ है अनुयोगिन्य, उसका आयय होता है उत्पत्ति के साथ और उत्पन्न शन में 'क' प्रत्यय का अर्थ है प्रतियोगित्व या मनियोगी, इसका अम्बय होता है घर के साथ, WA: 'मृदि घट उत्पन्नः' का अर्थ होता है, 'मृनुयोगिक जाम प्रतियोगी घउः, जिस का स्पष चित्रमन्निष्ठ-गानुयोगितानिरूपित-प्रतियोगितापनिम्नो ' पकार यह बात विशदरूप से शात हो सकती है कि 'दि घर उत्पा' यह प्रतीति मिली घट और जापान के बीच उक्कप्रकार का सम्बन्ध मानने पर ही उपपन्न हो सकती है। स प्रसस्ग में यच पान ध्यान देने योग्य है कि मटकी पत्पशि को पविशिष्ट मध्य की भी उपसि कहा जाता है, पर पा पर्याय से मुक्त होकर नहीं, किन्तु पर्धाप से विशिष्ट होकर, क्योंकि कुलाल के व्यापार से शुममध्य की उत्पत्ति नहीं होतो किन्तु घटविशिष्टमूद्रव्य की उत्पति होती है। कहा जाता 'कुलाल के उपापार से मिट्टी ही घसा रूप धन गई । सामान्य मृ घटाकार सूत् बन गई । इस प्रकार अप घडविशिष्टमिष्टिव्य वत्पत्ति का प्रतियोगी होता है तब उत्पत्ति केवल प्रतियोगी से की निरुपित होती है, अनुयोगी से निरूपिन नहीं होती, क्योंकि अनुपोगी प्रतियोगी के ही गर्भ में प्रविस हो जाता है, अतः घटोत्पति जब घढषिशिष्टम्वन्ध की उत्पत्ति रुप में प्रतीत होती है नव प्रनीति का बदलेन्स 'वविशिष्टमृदय उत्पन्नम्' स वाक्य से होता है, इसमें अनुयोगी का पृथए उस्लेख नहीं होता । इस प्रतीति के बारे में यदि यह हो कि "मृद्धम्म नो पहले से रहता है, अतः उसकी उत्पत्ति समय होने से यह प्रतीति मृद्रध्य की उत्पत्तिको विषय न कर घट की ही उत्पति को विषय करती है"-तो इसका यह समाधि है कि 'मृदय घटविशिष्ट' मातम्' इस प्रतीति में घरथिशिष्ट मुदतव्य में ही प्रतियोगिता का स्फुरण होता है। दूसरी बात या कि पदोत्पत्ति को उक्त प्रतीति का विषय तभी सामा मा सकता है, जब उत्पति केसाच पिशेषणरूप में घट का अग्थय हो किन्तु यह संभव नहीं है क्योंकि घट मिकी ज्य में विशेषणरूप में अग्वित है और या नियम है कि 'जो बिसी एक में विशेषण से भवित हो कर जिस प्रतीति में भासित होता को पर इसी प्रतीति में किसी अन्य में भी विशेषण होकर भासित नहीं होता ।'
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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