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शास्त्रवाचासमुच्चय
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साधुसेवाध्यापारमाह 'उपे'तिमूलम्--उपदेशः शुभो नित्यं, दर्शनं धर्म वारिणाम् ।
स्थाने विनय, इत्येतत् साधुसेवाफले महत 101 नित्यं-निरन्तरं भभो-निःश्रेगसाऽम्युगहेत: उपोशो-गौनीन्द्रप्रवचनपतिपादनरूपः । भवजलधियानपात्रप्रायः खल्ययम् । अस्य श्रवणमात्रादेव समीहितसिद्धेः, सुतरां च तदर्थज्ञानात् । तथा धर्मचारिणामुद्यतविहारपरायणानां साधूनां. दर्शनमुखारविन्दावलोकनम् , एतदपि परमबोधिलाभहेतुः, ततः फिलष्टकर्मविगमात् । तथा. स्थाने-शास्त्रोक्तस्थले, विनयः करशिरःसंयोगविशेषाभिव्यङ्गयो मानसः परिणामविशेषः । इत्येतत् साधुसेवाफलं महद् धर्माङ्गसाधनम्, उपदेशादिना चारित्रप्रतिवन्धककर्मक्षयोपशमादिना चारित्रधर्माऽवाप्तेः ॥७||
इस कारिका में साधुसेवा का बह व्यापार बताया गया है जिसके द्वारा साधुसेवा से धर्म हेतुओं का सम्पादन होता है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
साधुसेवा के ये तीन महान फल हैं-(१) निरन्तर शुभ उपदेश की प्राप्ति, (२) धर्म के लिये विहरणशील साधु पुरुषों का दर्शन और (३) उचित स्थान के प्रति मन में ननभाषना का उदय । (१) शुभ उपदेश का अर्थ है घर उपदेश जिससे मुख्यरूप से निःश्रेयस-परमकल्याण-मोक्ष की और गौण रूप से अभ्युदय-स्वर्ग -सुख की प्राप्ति हो । उपदेश का अर्थ है, मुनीन्द्र तीर्थकर भगवान के प्रवचनों की व्याख्या, न कि आगम. निरपेक्ष मनमाने ढंग का शिक्षण, क्योंकि ऐसे शिक्षण से तात्कालिक कुछ लोकिक लाभ भले हो जाय, पर उससे निन् यस अथवा अभ्युदय की प्राप्ति नहीं होनी। आगमानुसारी पदेश ही यथार्थ उपदेश है, वही मंसारसागर को पार कराने वाला जलयान-जहाज है, उस उपदेश के सुनने मात्र से ही अभीष्ट की सिथि होतो है, उसके अर्थशान से अभी की सिद्धि होने में तो सन्देश और विलम्ब होने की तो कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती (२) धर्मचारी साधुपुरुषों के दर्शन का अर्थ है-से पुरुषों के मुखारविन्द का अवलो कन, जो अपने संयम की रक्षा के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते रहते हैं, इससे जनता को धर्मलाभ देने के निमित्त उद्यत रहते हैं। ऐसे पुरुषों के दर्शन से लिए कर्मों की निवृत्ति हो कर परमयोधि सम्पदर्शन के उदय में सहायता मिलती है।(a) उचित स्थान में विनय का अर्थ है उन स्थानों के प्रति मन में ऐसे भाव का उदय जिसे धिनय, नम्रता अर्थद शब्दों से व्यवहत किया जाता है और करशिर:संयोग आदि याद्य प्रणामों से जिसकी अभिव्यक्ति होती है। मन में एसे उदय उन्हीं व्यक्तियों और स्थानों के प्रति होना चाहिये जिन्हें आगमों में ऐसे भावोत्पादन के लिए योग्य बताया गया है। साधुसेवा के इन फलों को महान् कहा गया है क्योंकि इनसे धर्महेतुओं का सम्पादन होता है, उपदेश आदि से बारित्र के विरोधी
१ उदितकों का क्षय व उदमाभिमुग्न कमरों का उपसम-फलतः जिसमें उन कमों का त्रिपाकोदय स्थगित हो जाता है।
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