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________________ स्वधासमुच्चय-स्तवक १ श्लोर सहा- मावरूपस्याऽऽत्मनः सतः, घटस्येव प्रत्यक्षेण वर्षने कि न भवति । तथा पानुपलायाऽभाव एष तस्येस्याशयः। तमानुपलघिरेय नास्तीति समाधते-पष्ट अप्रत्ययस्य वेदनात अनुभासदत्वाद अस्स्येव दर्शनम् । न नेदं न प्रत्यक्षमिति वाच्यम्. व्याप्त्यादिप्रतिसंधाननिरहेऽपि 'मायमानस्यान, आनमत्यविशिल्यायोग्याने माध्याऽप्रसिदयाऽनमानासम्भवाच्च । एतेन 'तपाऽस्मा तानन प्रत्तातो न गृह्यते' इति न्यायभायोकामपास्तम् | नु यधवमात्मा प्रत्यक्ष:, फर्थ त िनत्र शरीराऽभेदबुद्धि, धर्मिस्वरूपस्य शरीभेवस्याऽपि प्रहात् इति चेत् ? न, धर्ना न्तर्भाषेन बग्रदेऽपि शरीरभेदाकारफारामावाद तदभेदबुद्ध्युपपंचः इति नानुपलायाऽऽत्माभायनिश्चयः । न म नक्षुराभनुपलक्ष्या सदमाता, वारयादेप्यभावप्रसङ्गान्, न घानुपाधिमात्रया भात्रसाधकत्वम्, अन्यथा स्वगृहाद निर्गतो वराकमा को न हमासादयेत्, पुत्रासमान उसका प्रत्यक्षदर्शन क्यों नहों होता ! प्रत्यक्षदर्शन न होने से यही सिद्ध होता है कि शरीर से भिन्न भान्मा का ममाय है कि अभाष का माहक प्रमाण अनुपलब्धि नीरा मारमाऽमाय के लिये सुलभ है। इस प्रश्न का 'बनमाधान या दिपाकभामा समुपलाच नाही , अति 'महंत्यय'='मामा का प्रत्यक्ष पर्शम' 'मरमात्मान आमामि'-इस प्रकार अनुमतिम है। 'अपत्यय प्रत्यक्षरूप नहीं है इस शहा को मवकाय नहीं है क्योंकि याति आदि का नाम न रहने पर भी अप्रत्यय की उत्पत्ति होती है। दूसरी बात यह है कि प्रत्याशिष्ठ को प्रत्यक्ष के अयोग्य माना जायगा तो भास्मायविकिप साध्य की मसिदि होने से अनुमान आदि से भी आत्मा की सिसि ग हो सकेगा। इसी लिये न्यायभाष्य का यह कथन भी असंगत है कि मात्मा का प्रायस नहीं होता। अब प्रश्न पड होता है कि-"दि आत्मा प्रत्यक्षता निश्चय ही उसमें विद्यमान शोरमेन भी प्रत्यक्ष क्योंकि आत्मगन रोर मेद मान्मा से भिन्न नहीं, मोर जब शरीर भिन्न मारमा प्रत्यशसिद्ध है तो उसमें 'भाई गौर' 'भद स्युला' इत्यादिकप में शरीरभेद की पुजा कसे होगी-सका यह उत्तर है कि भारमगर भेद भास्मरूप होने से आत्मचमी के रूप में भवश्य गृहीत है। परमात्मधर्म के रूप में भास्मवि शेषणतया गुहीम नही है । अत: आत्ममिक शरीरभवनमारक बाघसुदिन होने से वामा में शरीरामेन की बुद्धि होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । माना यह स्प कि आत्मा की अनुपलब्धि सिम न होने से भनुपलभि द्वारा प्रारमा के मभाष की सिद्धि होगा मशक्य है। | अनुपलब्धिमात्र अभाचमाघक नही है। __ "चक्षुः मावि से मात्मा की उपलब्धि न होने से भागा का अभाष सिस होगा"-यर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक इन्द्रिय या गन्य प्रमाण से उसको सप.
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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