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________________ ११६ शास्त्रवाचांसमुच्चय-स्तक हो०७४ विपके 'अभाव:' इत्याकारकप्रत्यक्षापतेर्दुर्वारत्यात् । न चाभावत्वमात्रेण प्रत्यक्षस्यैष्टत्वम् 'शुन्यमिदं यते' इत्यादिप्रत्ययात् इत्थमेवाभावत्यस्य मानभेदस्य पिशाचादिभेश्वद् योग्यस्य घटो नास्ति इत्यादी स्वरूपतो मानमपि मात्रां सम्भवदुक्तिकम्। नल्लेखस्तु प्रतियोगिवाचकपदनियते। न लार्वत्रिक इति बाध्यम्, अन्धकार इव इदादावर्ष शुभ्यमिदम्'' इति वङ्गन्यमावाद प्रत्ययापतेः । 1 'अभावप्रत्यक्षे योग्यधर्मापनिज्ञानत्वेन हेतुत्वान्नायं दोष:' इत्यतिमन्दम्. नहीं है, क्योंकि इदस्य पुरोवर्तित्वरूप होने से लण्ड है, अतः अभाव और अभाचन्य के निर्विकस्यक काल में उसके ज्ञान की सामग्री का लम्मिघाम न होने से उस निर्विकल्पक के नगर स्वरूपतः अभावस्य को विषय करने वाले 'अभाषः प्रत्याकारक प्रत्यक्ष को आपति अपरिहार्य है । का खंडन — [ अभावरूप से प्रतियोगिमविशेषित अभावप्रत्यक्ष यदि यह कहें कि मधेरे में 'शून्यमिदं दृश्यते यत्र शून्य भाववान् खता है इस प्रकार की प्रतीति के सर्वमान्य होने से केवल मभावस्वरूप से प्रतियोगी से अविशेषित अभाव का प्रत्यक्ष ही है. यह मानने पर ही प्राचीन माचिकों का यह कथन भी उन्हो सकता है कि 'घो नास्ति पद घटाभाव है इस प्रत्यक्ष में अभारांश में भाषमेवरूप अभाव का स्वरूपतः भान होता है, अन्यथा प्रत्यक्ष में यदि प्रतियोगिषिशेषित दो अभाव का भान माना जायगा. तो भावमेव रूमभावत्व का भाषात्मक प्रतियोगी से विशेषित की भाग होने से उसके स्वरूपम्मान का प्रतिपादन असंगत हो जायगा । 'भावर योग्यभावप्रतियोगिक होने से अयोग्य है भा प्रत्यक्ष में उसका भान गर है - यह शङ्का नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रत्यनयोग्यता में प्रतियोगों को प्रत्यक्ष योग्यता के प्रयोजफ न होने से विधानभेद के समान भावमेव मी प्रत्यनयोग्य है । 'Hernias से अभाव का प्रत्यक्ष मानने पर 'न' इस शब्दमात्र से भी ममाचप्रत्यक्ष का उल्लेख होना चाहिये यह शंका भी नहीं की जा सकती, क्योंकि 'मह प्रतियो fares के समिधान में ही प्रभाव का वो होने से सार्वत्रिक नहीं होता" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'शुपति इस प्रतीति को यदि प्रतियोगि भविशेषिल प्रभाव का ग्राहक माना जायगा तो जैसे अन्धकार में उक्त प्रतीति होती है, वैसे को प्रकाश में हर आदि में भी वश्यभाव का विनय करने वाले 'शून्येोऽयं इद' इस प्रकार के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी । मः प्रतियोगी से प्रोिषि अभावप्रत्यक्ष के अनिष्ट होने से अमात्य में प्रतियोगिवान को कारण न मानने पर अभाव-मभाषस्य के निवि के बाद 'अभाव:' इस प्रकार के प्रत्यक्ष की आपत्ति दुनिवार है । योग्यधर्मावच्छिन्नानारूपेण हेतुना मानना निर्दोष नहीं है। यदि यह कहै कि 'अभाव:' इस प्रकार के प्रत्यक्ष को व्यापत्ति का परिहार करने लिये अभाषत्यक्ष में प्रतियोगिवान को कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि * अन्धकार में जो 'शुन्यांमंद' पहल है उसका अर्थ अ न कमपि दृश्यते इस वह भी प्रतियोगी से अषिशेषित अगाल की नहीं विषय करती ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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